भैरवनाथ मन्दिर वैष्णों देवी धाम, कटरा, जम्मू एवँ कश्मीर भाग : ३९१,पण्डित ज्ञानेश्वर हँस “देव” की क़लम से

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भैरवनाथ मन्दिर, निकट वैष्णों देवी धाम कटरा, जम्मू एवँ कश्मीर भाग : ३९१

आपने पिछले भाग में पढ़ा होगा भारत के धार्मिक स्थल : चिन्तपूर्णी माता मन्दिर, ज़िला : ऊना, हिमाचल प्रदेश। यदि आपसे उक्त लेख छूट गया या रह गया हो तो आप कृपया करके प्रजा टूडे की वेब साईट पर जाकर www.prajatoday.com धर्मसाहित्य पृष्ठ पढ़ सकते हैं! आज हम प्रजाटूडे समाचारपत्र के अति-विशिष्ट पाठकों के लिए लाए हैं:

भैरवनाथ मन्दिर, निकट वैष्णों देवी धाम, कटरा, जम्मू एवँ कश्मीर भाग : ३९१

शनिवार का विचार आते ही हृदय में विचार आया कि शनि देव के अतिरिक्त आलेख भैरव बाबा की कथा पर लिखा जाए। भैरव (तांत्रिक) या भैरवनाथ (वैकल्पिक रूप से भैरों या भैरोंनाथ या भैरों बाबा ) गोरखनाथ के शिष्य थे, जिनके गुरु मत्स्येंद्रनाथ थे । उन्हें सभी तांत्रिक सिद्धियों पर नियंत्रण रखने वाला माना जाता था और उन्हें अपनी शक्ति का अहंकार हो गया था। वह वैष्णो देवी को एक छोटी लड़की समझकर उसके पास गया। यह तभी हुआ जब माता वैष्णो देवी ने काली का रूप धारण कियाऔर भैरव का सिर काट दिया और अंत में उन्होंने अपने असली रूप को महसूस किया और क्षमा मांगी। अपने मरते क्षणों में, भैरव ने क्षमा याचना की। देवी जानती थीं कि भैरव का उन पर हमला करने का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना था। उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उन्हें एक वरदान भी दिया, जिससे प्रत्येक भक्त को वैष्णो देवी की तीर्थयात्रा को पूरा करने के लिए, पवित्र गुफा के पास भैरव नाथ के मन्दिर में भी जाना होगा। देवी के दर्शन के साथ भैरव नाथ के दर्शन के बिना

यात्रा सम्पूर्ण नहीँ होगी। भारत में विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर के जम्मू सँभाग में बाबा भैरवनाथ के कई मन्दिर हैं। दिल्ली में भी बाबा के कई प्राकट्य मन्दिर हैं।

काले कुत्ते भैरवनाथ के प्रतीक हैं और जिन लोगों पर भैरों बाबा का क्रोध है वे काले कुत्तों को भोजन कराया करते थे ताकि उनका दुष्ट क्रोध शाँत हो जाए और उन पर भैरों बाबा की कृपा बनी रहे।

भैरव बाबा की कथा :

कैसे हुआ कालभैरव का जन्म देवताओं ने अपने विचार व्यक्त किया जिसका समर्थन विष्णु जी और भगवान शिव ने किया लेकिन ब्रह्मा जी इस विपरीत शिव जी से अपशब्द कह दिए । भगवान शिव इस बात पर क्रोधित हो गए और उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। शिवजी के इस रूप को देखकर सभी देवता घबरा गए। भगवान शिव के क्रोध से काल भैरव का हुआ जन्म क्या है इसके पीछे की कथा सार मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष कीअष्टमी काल भैरव भगवान को प्रसन्न करने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। क्या आप जानते हैं कि भगवान कालभैरव कि उत्पत्ति भगवान शिव के क्रोध से हुई थी। आइए जानते हैं क्या है कालभैरव के जन्म से जुड़ी

पौराणिक कथा :

विस्तार : काल भैरवअष्टमी को हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कालभैरव अष्टमी मनाई जाती। भगवान काल की कृपा से जातक को भय और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति मिलती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मार्गशीर्ष मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान काल भैरव का अवतरण हुआ था। भगवान काल भैरव को दंडपाणि भी कहा जाता है। जहां भक्तों के लिए काल भैरव दयालु, कल्याण करने वाले और अतिशीघ्र प्रसन्न होने वाले देव माने जाते हैं, तो वहीं अनैतिक कार्य करने वालों के लिए ये दंडनायक हैं। इनके विषय में धार्मिक मान्यताएं कहती हैं कि यदि इनके भक्तों का कोई अहित करता है तो उसे तीनों लोकों में कहीं भी शरण प्राप्त नहीं होती है। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष कीअष्टमी काल भैरव भगवान को प्रसन्न करने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। क्या आप जानते हैं कि भगवान कालभैरव कि उत्पत्ति भगवान शिव के क्रोध से हुई थी।

कालभैरव के जन्म से जुड़ी पौराणिक कथा :

कैसे हुआ कालभैरव का जन्म पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों में कौन सबसे श्रेष्ठ है इसको लेकर बहस चली। सभी देवताओं को बुलाकर यह पूछा गया कि श्रेष्ठ कौन है? देवताओं ने अपने विचार व्यक्त किया जिसका समर्थन विष्णु जी और भगवान शिव ने किया लेकिन ब्रह्मा जी इस विपरीत शिव जी से अपशब्द कह दिए । भगवान शिव इस बात पर क्रोधित हो गए और उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। शिवजी के इस रूप को देखकर सभी देवता घबरा गए। भैरव ने क्रोध में ब्रह्माजी के 5 मुखों में से 1 मुख को काट दिया, तब से ब्रह्माजी के पास ४ मुख ही हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सिर को काटने के कारण भैरवजी पर ब्रह्महत्या का पाप आ गया। ब्रह्माजी ने भैरव बाबा से माफी मांगी तब जाकर शिवजी अपने असली रूप में आए। भगवान शिव के इस भैरव अवतार का वाहन काला कुत्ता है। इनके एक हाथ में छड़ी है। इस अवतार को ‘महाकालेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है इसलिए ही इन्हें दंडाधिपति भी कहते हैं।

माँ वैष्णो एवँ भैरव बाबा की लड़ाई :

माँ वैष्णो और भैरव बाबा की लड़ाई की कहानी, क्यों होती है भैरों की पूजा। नवरात्री के नौ दिन तक देवी की पूजा की जाती है तो नवरात्रि के दिन यानी नवरात्र के अँतिम दिन कन्या पूजन का विधान है इसके साथ ही कन्या पूजन में, भैरव और हनुमान के साथ पूजा जाता है। नौ कन्या के साथ एक भैरव भी होता है। ९ कन्या के घर बुलाकर पूजा जाता है उनको भेंट दी जाती है व भोजन कराया जाता है। आज इस लेख मे हम कन्या पूजन में भैरों की पूजा कैसे शुरु हुई इस बारे मे बता रहें है। कटरा के पास हन्साली गाँव में माता के परम भक्त श्रीधर रहते थे। उनकी कोई सँतान नहीँ थी। जिसके कारण वे हमेशा दु:खी रहते थे। एक दिन उन्हे नवरात्रि में उनको सपने में देवी आकर बोली की नवरात्रि में नौ कुँवारी कन्याओं की पूजा करें। जब पंडित ने कन्या पूजन करने के लिए कन्या बैठाई तो उसमें मां वैष्णो देवी कन्या के रूप में बीच में आकर बैठ गई। पूजा के बाद अन्य सभी कन्या तो चली गईं लेकिन माता वैष्णो देवी नहीं गईं। उन्होंने श्रीधर से कहा- “सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।”

श्रीधर ने कन्या की बात मान कर आस-पास के गांवों में भंडारे का संदेश सब को दे दिया। गांव के लोग हैरान थे कि आखिर किस के कहने पर इसने सभी को भंडारे का निमत्रणं दिया। और गांव वाले भंडारे के लिए चलें गयेय़ श्रीधर ने सब को बैठाया और दिव्य कन्या ने सब को भोजन परोसना शुरु किया। लेकिन जब कन्या भैरवनाथ को भोजन परोसने गई तो वह बोले, “मुझे तो मांस व मदिरा चाहिए।”

इस पर कन्या ने कहा “ब्राह्मण के भंडारे में यह सब नहीं मिलता”। लेकिन भैरवनाथ ने जिद पकड़ ली लेकिन माता उसकी चाल भांप गई। इस पर कन्या ने पवन का रूप धारण कर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गईं। तो भैरवनाथ ने उनका पीछा किया।उस समय माता के साथ उनका वीर लंगूर भी था। रास्ते में एक गुफा में देवी ने नौ माह तक तप किया। कन्या की खोज में भैरव भी वहां तक पहुच गया। तब एक साधु ने उससे कहा, “जिसे तू साधारण नारी समझता है, वह तो महाशक्ति हैं।’ भैरव ने साधु की बात को माना नहीं लेकिन तब तक माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। उस गुफा को गर्भ जून के नाम से जाना जाता है। इसके बाद देवी ने भैरव को लौटने के लिए कहा किंतु वह नहीं माना।

उसके बाद माता ने आगे की ओर प्रस्थान किया, तो भैरव नाथ ने उनका रास्ता रोक कर युद्ध के लिए ललकारा उस समय वीर लंगूर ने भैरव को रोकने की कोशिश की तो उसे भैरवनाथ ने निढाल कर दिया। उसी समय माता वैष्णो ने चंडी रूप धारण कर भैरव का वध कर दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर फेंका तो वह ऊपर की घाटी में जा गिरा जिसे आज भी भैरों घाटी नाम से जाना जाता है।

मरते समय भैरो ने मां से क्षमा मांगी, मां ने उसे माफ कर वरदान दिया और कहा जो व्यक्ति मेरे दर्शन के लिए आएगा अगर वह तेरे दर्शन नहीं करेगा तो उसकी यात्रा अधूरी मानी रहेगी।

नवरात्री के नौ दिन तक देवी की पूजा की जाती है तो नवरात्रि में नवमी के दिन यानी नवरात्र के अंतिम दिन कन्या पूजन का विधान है इसके साथ ही कन्या पूजन में भैरव भी पूजा जाता है। नौ कन्या के साथ एक भैरव भी होता है। ९ कन्या के घर बुलाकर पूजा जाता है उनको भेंट दी जाती है व भोजन कराया जाता है। आज इस लेख मे हम कन्या पूजन में भैरों की पूजा कैसे शुरु हुई इस बारे मे बता रहें है।

कटरा के पास हन्साली गांव में माता के परम भक्त श्रीधर रहते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। जिसके कारण वे हमेशा दुखी रहते थे। एक दिन उन्हे नवरात्रि में उनको सपने में देवी आकर बोली की नवरात्रि में नौ कुंवारी कन्याओं को बुल कर पूजा करें। जब पंडित ने कन्या पूजन करने के लिए कन्या बैठाई तो उसमें मां वैष्णो देवी कन्या के रूप में बीच में आकर बैठ गई। पूजा के बाद अन्य सभी कन्या तो चली गईं लेकिन माता वैष्णो देवी नहीं गईं। उन्होंने श्रीधर से कहा- “सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।”

श्रीधर ने कन्या की बात मान कर आस-पास के गांवों में भंडारे का संदेश सब को दे दिया। गांव के लोग हैरान थे कि आखिर किस के कहने पर इसने सभी को भंडारे का निमत्रणं दिया। और गांव वाले भंडारे के लिए चलें गयेय़ श्रीधर ने सब को बैठाया और दिव्य कन्या ने सब को भोजन परोसना शुरु किया। लेकिन जब कन्या भैरवनाथ को भोजन परोसने गई तो वह बोले, “मुझे तो मांस व मदिरा चाहिए।”

इस पर कन्या ने कहा “ब्राह्मण के भंडारे में यह सब नहीं मिलता”। लेकिन भैरवनाथ ने जिद पकड़ ली लेकिन माता उसकी चाल भांप गई। इस पर कन्या ने पवन का रूप धारण कर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गईं। तो भैरवनाथ ने उनका पीछा किया।उस समय माता के साथ उनका वीर लंगूर भी था। रास्ते में एक गुफा में देवी ने नौ माह तक तप किया। कन्या की खोज में भैरव भी वहां तक पहुच गया। तब एक साधु ने उससे कहा, “जिसे तू साधारण नारी समझता है, वह तो महाशक्ति हैं।’

भैरव ने साधु की बात को माना नहीं लेकिन तब तक माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। उस गुफा को गर्भ जून के नाम से जाना जाता है। इसके बाद देवी ने भैरव को लौटने के लिए कहा किंतु वह नहीं माना। उसके बाद माता ने आगे की ओर प्रस्थान किया, तो भैरव नाथ ने उनका रास्ता रोक कर युद्ध के लिए ललकारा उस समय वीर लंगूर ने भैरव को रोकने की कोशिश की तो उसे भैरवनाथ ने निढाल कर दिया। उसी समय माता वैष्णो ने चंडी रूप धारण कर भैरव का वध कर दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर फेंका तो वह ऊपर की घाटी में जा गिरा जिसे आज भी भैरों घाटी नाम से जाना जाता है।

मरते समय भैरो ने मां से क्षमा मांगी, मां ने उसे माफ कर वरदान दिया और कहा जो व्यक्ति मेरे दर्शन के लिए आएगा अगर वह तेरे दर्शन नहीं करेगा तो उसकी यात्रा अधूरी मानी रहेगी।

नवरात्री के नौ दिन तक देवी की पूजा की जाती है तो नवरात्रि में नवमी के दिन यानी नवरात्र के अंतिम दिन कन्या पूजन का विधान है इसके साथ ही कन्या पूजन में भैरव भी पूजा जाता है। नौ कन्या के साथ एक भैरव भी होता है। 9 कन्या के घर बुलाकर पूजा जाता है उनको भेंट दी जाती है व भोजन कराया जाता है। आज इस लेख मे हम कन्या पूजन में भैरों की पूजा कैसे शुरु हुई इस बारे मे बता रहें है।

कटरा के पास हन्साली गांव में माता के परम भक्त श्रीधर रहते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। जिसके कारण वे हमेशा दुखी रहते थे। एक दिन उन्हे नवरात्रि में उनको सपने में देवी आकर बोली की नवरात्रि में नौ कुंवारी कन्याओं को बुल कर पूजा करें। जब पंडित ने कन्या पूजन करने के लिए कन्या बैठाई तो उसमें मां वैष्णो देवी कन्या के रूप में बीच में आकर बैठ गई। पूजा के बाद अन्य सभी कन्या तो चली गईं लेकिन माता वैष्णो देवी नहीं गईं। उन्होंने श्रीधर से कहा- “सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।”

श्रीधर ने कन्या की बात मान कर आस-पास के गांवों में भंडारे का संदेश सब को दे दिया। गांव के लोग हैरान थे कि आखिर किस के कहने पर इसने सभी को भंडारे का निमत्रणं दिया। और गांव वाले भंडारे के लिए चलें गयेय़ श्रीधर ने सब को बैठाया और दिव्य कन्या ने सब को भोजन परोसना शुरु किया। लेकिन जब कन्या भैरवनाथ को भोजन परोसने गई तो वह बोले, “मुझे तो मांस व मदिरा चाहिए।”

इस पर कन्या ने कहा “ब्राह्मण के भंडारे में यह सब नहीं मिलता”। लेकिन भैरवनाथ ने जिद पकड़ ली लेकिन माता उसकी चाल भांप गई। इस पर कन्या ने पवन का रूप धारण कर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गईं। तो भैरवनाथ ने उनका पीछा किया।उस समय माता के साथ उनका वीर लंगूर भी था। रास्ते में एक गुफा में देवी ने नौ माह तक तप किया। कन्या की खोज में भैरव भी वहां तक पहुच गया। तब एक साधु ने उससे कहा, “जिसे तू साधारण नारी समझता है, वह तो महाशक्ति हैं।

भैरव ने साधु की बात को माना नहीं लेकिन तब तक माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। उस गुफा को गर्भ जून के नाम से जाना जाता है। इसके बाद देवी ने भैरव को लौटने के लिए कहा किंतु वह नहीं माना।

उसके बाद माता ने आगे की ओर प्रस्थान किया, तो भैरव नाथ ने उनका रास्ता रोक कर युद्ध के लिए ललकारा उस समय वीर लंगूर ने भैरव को रोकने की कोशिश की तो उसे भैरवनाथ ने निढाल कर दिया। उसी समय माता वैष्णो ने चंडी रूप धारण कर भैरव का वध कर दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर फेंका तो वह ऊपर की घाटी में जा गिरा जिसे आज भी भैरों घाटी नाम से जाना जाता है।मरते समय भैरो ने मां से क्षमा मांगी, मां ने उसे माफ कर वरदान दिया और कहा जो व्यक्ति मेरे दर्शन के लिए आएगा अगर वह तेरे दर्शन नहीं करेगा तो उसकी यात्रा अधूरी मानी रहेगी।

पता :

भैरव नाथ मन्दिर, निकट:वैष्णों देवी धाम, कटरा, जम्मू एवँ कश्मीर भारत।

हवाई मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :

हवाईजहाज से निकटतम हवाई अड्ड़ा जम्मू है। जम्मू के उत्तर में ६१ किलोमीटर की दूरी पर समुद्र तट से ५२०० फुट की ऊँचाई पर माँ की पवित्र गुफा स्थित है। माँ वैष्णो देवी यात्रा की शुरुआत कटरा से होती है। जम्मू से कटरा की दूरी लगभग ५० किलोमीटर है।

रेल मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :

रेल द्वारा आप निकटतम रेलहेड्स कटरा से जम्मू ५० किलोमीटर है। जम्मू रेल्वे स्टेशन से बस या कैब द्वारा कटरा व कटरा से माँ के धाम, वहाँ से भैरों बाबा के दर्शन कर के यात्रा सफ़ल कर सकते हैं।

सड़क मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :

ISBT से वैष्णोदेवी के मन्दिर आने के लिए बस, अपनी कार या बाईक से आते हैं तो ६५१.७ किलोमीटर की दूरी तय करके आप १३ घण्टे १५ मिनट्स में पहुँच जाओगे माँ वैष्णों देवी माता मन्दिर। माँ के दर्शन करके बाबा भैरवनाथ के दर्शन कर यात्रा सफल करोगे।

भैरव नाथ महाराज की जय हो। जयघोष हो।।

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