श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर, साध नगर, पालम, नई दिल्ली भाग : ४०३
आपने पिछले भाग में पढ़ा होगा भारत के धार्मिक स्थल : श्री विघ्नहर गणपतिजी मन्दिर, ओझर, पुणे, महाराष्ट्र। यदि आपसे उक्त लेख छूट गया या रह गया हो तो आप कृपया करके प्रजा टूडे की वेब साईट पर जाकर www.prajatoday.com धर्मसाहित्य पृष्ठ पढ़ सकते हैं! आज हम प्रजाटूडे समाचारपत्र के अति-विशिष्ट पाठकों के लिए लाए हैं:
श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर, साध नगर, पालम, नई दिल्ली भाग : ४०३
श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर रेल्बे रोड़ से गली नम्बर १९ साध नगर, पालम कॉलोनी की ओर जब आप जाओगे तो राहुल पब्लिक स्कूल के समीप ही यह मन्दिर आएगा, आप मन्दिर के भीतर जाकर दर्शन कर पाएँगे। यद्यपि देवाधिदेव महादेव के अतिरिक्त, जैसा कि मन्दिर के नाम से ही वर्णित है श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर। साईँ की खूबसूरत मार्बल की बोलती मूर्ति को प्रणाम कर आसपास के रहवासी, यहाँ तक के जब मैं सन २००५ जनवरी तक गली नम्बर १४ पालम में रहा, तदुपरांत मैंने फरवरी माह में ही द्वारका में अपना फ्लैट ले लिया था।
श्री हाजरीश्वर महादेव साईँ मन्दिर में शेरांवली माता, राम दरबार, राधा कृष्ण, की भी प्राणप्रतिष्ठित मनभावन मूर्तियां मौजूद हैं एवँ मन्दिर का वातावरण शाँति प्रिय है। प्रत्येक साइँवार को पालकी का प्रयोजन एवँ भण्डारे की व्यवस्था भी उत्तम होती है। बिल्कुल समीप ही मेरे मौसेरे भाई श्री संजीव शर्मा कक्कू और कृष्ण कुमार निक्कू रहते हैं। संजीव बहुत अच्छे गायक हैं, मेरी छोटी बहन शारदा बक्शी ने कई बार गाया। इस मन्दिर के आसपास के लोग एवँ पालम के लोग आज भी स्मरण करते हैं।विवाहोपरांत बेबी शारदा ने गायन को विराम दे दिया।
साईँ सच्चरित्र अध्याय ५ का शेष भाग :मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती और जीवन परिवर्तन :
शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था । बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया । फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये । इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया । वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे । वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे । इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे । वे सदैव यही कहा करते थे । कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई । गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था । एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई ।
इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये । इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया । पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा । श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे । जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे ।
दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे । कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे । नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे । बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे।
उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी । बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा । कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ । इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी । अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई ।
तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा । बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे ।
केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे ।
वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् १९१२ के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोदाार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।
जल का तेल में परिवर्तन
बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था । वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल मागँ लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे । यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा । अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे । नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ ।
किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उनपर दृष्टि जमाये हुये थे । बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था । उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये । उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया । उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की । बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया।
मिथ्या गुरु जौहर अली
उपयुक्त वर्णित कुश्ती के ५ वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये । वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे । फकीर विदृान था । कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी ।उसका कंठ मधुर था । गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसे पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा । लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया । इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया ओर बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा । उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हर लिया । वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा ।
बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीकार कर लिया। तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे। गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था। इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबाहते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की। वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था।
श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था । इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये। इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई ओर उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया। बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे।
अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये। इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे। इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से ने जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रुद्ध हुए। कुछ वाद-विवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे। कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई।
चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे १२ वर्ष पूर्व देवीदास लगभग ११ वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मन्दिर में रहते थे। देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे । वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञगनी थे। बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे। लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये। विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया।
वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की। उसका यह भ्रम कि वह स्वये पुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था। श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ। इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उरस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये। ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथनानुसार है। अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
पता :
श्रीहाजरीश्वर महादेव साईँ मन्दिर, J3C, गली नम्बर १९, रेल्वे रोड़, साध नगर, पालम कॉलोनी,नई दिल्ली पिनकोड:110045 भारत।
हवाई मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :
हवाई जहाज़ से जाने पर, निकटतम हवाई अड्डा पालम दिल्ली का इन्दिरगाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा है। आप कैब या कोई सार्वजनिक परिवहन ले सकते हैं जो आपको आसानी से ७.६ किलोमीटर की दूरी तय करके ० घण्टे १४ मिन्टस में पहुँच जाओगे श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर।
रेल मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :
पालम कॉलोनी मेट्रो रेल्वे स्टेशन से २ किलोमीटर की दूरी से तय करके ० घण्टे ७ मिनट्स में ही ई-रिक्शा से ६० फुटा रोड़ से पहुँचा जा सकता है श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर।
सड़क मार्ग से कैसे पहुँचे मन्दिर :
ISBT से आने के लिए बस, अपनी कार या बाईक से आते हैं तो राष्ट्रीय राजमार्ग मार्ग से होते हुए आप किलोमीटर की यात्रा करके ०घण्टे ४९ मिन्टस में वाया करिअप्पा मार्ग पहुँच जाओगे श्री हजारीश्वर महादेव साईँ मन्दिर।
श्री हजारीश्वर महादेव साईँ जी की जय हो। जयघोष हो।।