दाऊजी मन्दिर बलदेव नगर मथुरा, उत्तरप्रदेश भाग: २३३,पँ० ज्ञानेश्वर हँस “देव” की क़लम से

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भारत के धार्मिक स्थल : दाऊजी मन्दिर बलदेव नगर मथुरा, उत्तरप्रदेश भाग: २३३

आपने पिछले भाग में पढ़ा होगा घण्टेश्वर मन्दिर, रेवाड़ी, हरियाणा! यदि आपसे उक्त लेख छूट अथवा रह गया हो तो आप प्रजा टुडे की वेबसाईट http://www.prajatoday.com पर जाकर धर्म साहित्य पृष्ठ पर जाकर पढ़ सकते हैं! आज हम आपके लिए लाएं हैं।

भारत के धार्मिक स्थल : दाऊजी मन्दिर बलदेव नगर मथुरा, उत्तरप्रदेश भाग: २३३

दाऊजी का मन्दिर भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम को ही दाऊजी कहते हैं इन्ही को समर्पित है! मथुरा में यह ‘वल्लभ सम्प्रदाय’ का सबसे प्राचीन मन्दिर माना जाता है! यमुना नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर को ‘गोपाल लालजी का मन्दिर’ भी कहते हैं! मन्दिर में दाऊजी, मदन मोहन जी तथा अष्टभुज गोपाल के श्री विग्रह विराजमान हैं! दाऊजी या बलराम भैया का मुख्य ‘बलदेव मन्दिर’ मथुरा के ही बलदेव नगर में स्थित है! मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है! मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड भी है, जो ‘बलभद्र कुण्ड’ के नाम से पुराण वर्णित है! आज कल इसे ‘क्षीरसागर’ के नाम से पुकारा जाता है!

यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है! मथुरा से २१ किलोमीटर की दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में यह स्थित है! मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन, जो कि पुराणों में वर्णित ‘वृहद्वन’ के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं! यह स्थान पुराणोक्त ‘विद्रुमवन’ के नाम से निर्दिष्ट है! इसी विद्रुमवन में बलराम की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती का विग्रह है! यह एक विशालकाय देवालय है, जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है! मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार स्थापित है! मन्दिर के चार मुख्य दरवाज़े हैं, जो क्रमश: ‘सिंहचौर’, ‘जनानी ड्योढी’, ‘गोशाला द्वार’ या ‘बड़वाले दरवाज़े’ के नाम से जाने जाते हैं! मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिसका ‘बलभद्र कुण्ड’ के नाम से पुराण आदि में वर्णन है!

मन्दिर में मूर्ति पूर्वाभिमुख दो फुट ऊँचे सँगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है! पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु चार देव विग्रह तथा चार देवियों की मूर्तियाँ निर्माण करवा कर स्थापित की थीं! जिनमें से बलदेवजी का यही विग्रह है, जो कि ‘द्वापर युग’ के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था! पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्ति पूर्व कुषाण कालीन है, जिसका निर्माणकाल दो सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये! ब्रजमण्डल के प्राचीन देव स्थानों में यदि बलदेवजी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी! ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिले! यह मूर्ति क़रीब ८ फुट ऊँची एवँ साढ़े तीन फुट चौडी श्याम-वर्ण की है! पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं! मूर्ति नृत्य मुद्रा में स्थापित है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है! विशाल नेत्र, भुजाएँ-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं! मुकट में बारीक नक़्क़ाशी का आभास होता है! पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए हैं!

मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजयंती माला उत्कीर्ण है! मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है! शेष के तीन वलय हैं, जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योगशास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार दाऊजी यानि बलदेव शक्ति के प्रतीक योग एवँ शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देते हैं, जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं! बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती की मूर्ति स्थापित है, जो कि बलदेव के चरणोन्मुख है और रेवती के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है! यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है! दाहिना हाथ वरद मुद्रा में तथा वाम हस्त कटि प्रदेश के पास स्थित है! इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है! दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है! वैदिक धर्म के प्रचार एवं अर्चना का आरम्भ चर्तुव्यूह उपासना से होता है, जिसमें संकर्षण प्रधान हैं! ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ब्रजमण्डल के प्राचीनतम देवता बलदेव ही हैं! सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं है! ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवीं शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवँ उनके मन्दिर को इंगित किया गया है! अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिलालेख, जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंग कालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव की पूजा उपासना एवं जनमान्यताओं के प्रतीक हैं!

बलदेव मूर्ति का प्राकट्य:

दाऊजी मन्दिर में बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी रोचक इतिहास है! मध्य काल का समय था! मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था! बादशाह अकबर अपने भारी श्रम, बुद्धिचातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में लीन था, जो कि उसके कल्पना लोक की मान्यता के अनुसार कभी भी न ढहे और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें! एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था, दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्ण युग! ब्रजमण्डल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य एवं चैतन्य सम्प्रदाय की मान्यताएँ अत्यन्त लोकप्रिय थीं! किसी समय गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीन तीर्थस्थल ‘सूर्यकुण्ड’ एवँ उसका तटवर्ती ग्राम ‘भरना-खुर्द’ था! इसी सूर्यकुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याण देवाचार्य तपस्या करते थे! उनका जन्म भी इसी ग्राम में इभयराम के घर में हुआ था!

हवाई मार्ग से कैसे पहुँचें:

फ्लाइट से आगरा के अँतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे उतर कर मन्दिर पहुंचेंगे! वहाँ से कैब द्वारा दाऊजी मन्दिर पहुँच जाओगे!

रेल मार्ग से कैसे पहुँचें:

रेल द्वारा मथुरा रेलवे स्टेशन जँक्शन है! मथुरा रेल्वे स्टेशन आप उतर कर, कैब अथवा स्थानीय बस या ऑटो से भी पहुँच सकते हो दाऊजी मन्दिर!

सड़क मार्ग से कैसे पहुँचें:

आप कार अथवा बस से दिल्ली से रवाना होते हो तो मन्दिर पहुँचने के लिए आप ३ घण्टे १ मिनट्स का रास्ता तय करते हुए १७७.७ किलोमीटर यात्रा करके राष्ट्रीय राजमार्ग NH: यमुनाएक्सप्रेस वे से पहुँच जाओगे दाऊजी मन्दिर!

दाऊजी की जय हो! जयघोष हो!!

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