शक्तिपीठ माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर इन्दौर, मध्यप्रदेश भाग :४४४,पण्डित ज्ञानेश्वर हँस “देव” की क़लम से

Share News

शक्तिपीठ माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर, अम्बेडकर नगर, इन्दौर, मध्यप्रदेश भाग :४४४

आपने पिछले भाग में पढ़ा होगा, भारत के धार्मिक स्थल : श्री साईँ बाबा मन्दिर, आई ब्लॉक, सब्ज़ी मण्डी, सागर पुर ईस्ट, निकट पालम कॉलोनी, नई दिल्ली। यदि आपसे उक्त लेख छूट अथवा रह गया हो तो आप कृप्या करके प्रजाटूडे की वेबसाइट पर जाकर www.prajatoday.com पर जाकर धर्मसाहित्य पृष्ठ पर पढ़ सकते हैं:

शक्तिपीठ माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर, अम्बेडकर नगर, इन्दौर, मध्यप्रदेश भाग :४४४

शाजापुर श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व का है माँ-राजराजेश्वरी मन्दिर

प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी का मन्दिर नगर के चंद्रभागा नदी तट पर स्थित है। चंद्राकार स्थान में श्मशान होने से इसकी महत्वता और बढ़ गई है। खासकर तंत्र-मंत्र की सिद्धि के लिए मन्दिर की प्रसिद्धि दूर-दूूर तक है।

स्कंद पुराणानुसार यह है शक्तिपीठ :

स्कंद पुराण में इसे शक्तिपीठ बताया गया है। मान्यता है कि शक्तिपीठ के दर्शन मात्र से ही लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

नगर में स्थित माँ राजराजेश्वरी मन्दिर देश के प्रमुख देवी मन्दिरों में से एक है। नवरात्रि प्रारंभ होते ही यहां अनेक तांत्रिक आकर साधना में जुट जाते हैं। नदी के दूसरेे किनारे श्मशान है। इसलिए यह स्थान तंत्र क्रियाएं सिद्ध करने वालों के लिए विशेष माना जाता है। देशभरसे यहां तांत्रिक आते हैं। मंदिर के विस्तार के दौरान की गई खुदाई में माता का चरण, चिमटा व त्रिशूल मिलने से लोगों की आस्था और बढ़ गई थी।

स्कंद पुराण में माँ राजराजेश्वरी मन्दिर को शक्तिपीठ बताया गया है। इसके दर्शन मात्र से ही लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। विश्व के 51 स्थानों पर शक्तिपीठ मन्दिर स्थापित हैं। ऐसी मान्यता है कि हवन की आग में झुलसी मां पार्वती को लेकर घूमते समय उनके एक-एक अंग गिरते रहे। इसी दौरान शाजापुर में माँ का दाहिना पाँव गिरा था। जो आज भी मन्दिर के गर्भगृह में है।

46 साल से जल रही अखण्ड ज्योत :

शक्ति पीठ मां राजराजेश्वरी मन्दिर में पिछले 46 साल से अखंड ज्योत जल रही है। पुजारी जी ने बताया कि स्थापित माँ की प्रतिमा दिन में तीन बार अपना रूप बदलती है। पूर्व में यहां आरती के समय शेर भी आकर मां के दरबार में हाजरी लगाता था। जिसके कारण हवनकुंड के स्थान पर शेर की प्रतिमा स्थापित की गई है।

माँ राजराजेश्वरी आराधना :

जीवन के विकास और उसे सुन्दर बनाने के लिये धन-ज्ञान और शक्ति के बीच संतुलन आवश्यक है। श्रीविद्या-साधना वही कार्य करती है, श्रीविद्या-साधना मनुष्य को तीनों शक्तियों की संतुलित मात्रा प्रदान करती है और उसके लोक परलोक दोनों सुधारती है।

जब मनुष्य में शक्ति संतुलन होता है तो उसके विचार पूर्णतः पॉजिटिव (सकारात्मक, धनात्मक) होते है। जिससे प्रेरित कर्म शुभ होते है और शुभ कर्म ही मानव के लोक-लोकान्तरों को निर्धारित करते है तथा मनुष्य सारे भौतिक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है।

श्रीविद्या-साधना ही एक मात्र ऐसी साधना है जो मनुष्य के जीवन में संतुलन स्थापित करती है। अन्य सारी साधनाएं असंतुलित या एक तरफा शक्ति प्रदान करती है। इसलिए कई तरह की साधनाओं को करने के बाद भी हमें साधकों में न्यूनता (कमी) के दर्शन होते है। वे कई तरह के अभावों और संघर्ष में दुःखी जीवन जीते हुए दिखाई देते है और इसके परिणाम स्वरूप जन सामान्य के मन में साधनाओं के प्रति अविश्वास और भय का जन्म होता है और वह साधनाओं से दूर भागता है। भय और अविश्वास के अतिरिक्त योग्य गुरू का अभाव, विभिन्न यम-नियम-संयम, साधना की सिद्धि में लगने वाला लम्बा समय और कठिन परिश्रम भी जन सामान्य को साधना क्षेत्र से दूर करता है। किंतु श्रीविद्या-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अत्यंत सरल, सहज और शीघ्र फलदायी है।

सामान्य जन अपने जीवन में बिना भारी फेरबदल के सामान्य जीवन जीते हुवे भी सुगमता पूर्वक साधना कर लाभान्वित हो सकते है। परम पूज्य गुरूदेव डॉ. सर्वेश्वर शर्मा ने चमत्कारी शीघ्र फलदायी श्रीविद्या-साधना को जनसामान्य तक पहुचाने के लिए विशेष शोध किये और कई निष्णात विद्ववानों, साधकों और सन्यासियों से वर्षो तक विचार-विमर्श और गहन अध्ययन चिंतन के बाद यह विधि खोज निकाली जो जनसामान्य को सामान्य जीवन जीते हुए अल्प प्रयास से ही जीवन में सकारात्मक परिवर्तन कर सफलता और समृद्धि प्रदान करती है।

गुरूदेव प्रणीत श्रीविद्या-साधना जीवन के प्रत्येक क्षे़त्र नौकरी, व्यवसाय, आर्थिक उन्नति, सामाजिक उन्नति, पारिवारिक शांति, दाम्पत्य सुख, कोर्ट कचहरी, संतान-सुख, ग्रह-नक्षत्रदोष शांति में साधक को पूर्ण सफलता प्रदान करती है। यह साधना व्यक्ति के सर्वांगिण विकास में सहायक है। कलियुग में श्रीविद्या की साधना ही भौतिक, आर्थिक समृद्धि और मोक्ष प्राप्ति का साधन है।

श्रीविद्या-साधना के सिद्धांत
संतुलन का सिद्धांत- शक्ति के सभी रूपों में धन-समृद्धि, सत्ता, बुद्धि, शक्ति, सफलता के क्षेत्र में।
संपूर्णता का सिद्धांत:-

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्ति:

सुलभता का सिद्धांत- मिलने में आसान।
सरलता का सिद्धांत- करने में आसान।
निर्मलता का सिद्धांत- बिना किसी दुष्परिणाम के साधना।
निरंतरता का सिद्धांत- सदा, शाश्वत लाभ और उन्नति।
सार्वजनिकता का सिद्धांत – हर किसी के लिए सर्वश्रेष्ठ साधना ।

देवताओं और ऋषियों द्वारा उपासित श्रीविद्या-साधना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यह परमकल्याणकारी उपासना करना मानव के लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। आज के युग में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अशांति, सामाजिक असंतुलन और मानसिक तनाव ने व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमताओं को कुण्ठित कर दिया है। क्या आपने कभी सोचा है कि हजारों प्रयत्नों के बाद भी आप वहां तक क्यों नहीं पहुच पाये जहां होना आपकी चाहत रही है ? आप के लिए अब कुछ भी असंभव नहीं है, चाहें वह सुख-समृद्धि हो, सफलता, शांति ऐश्वर्य या मुक्ति (मोक्ष) हो। ऐसा नहीं कि साधक के जीवन में विपरीत परिस्थितियां नहीं आती है। विपरीत परिस्थितियां तो प्रकृति का महत्वपूर्ण अंग है। संसार में प्रकाश है तो अंधकार भी है। सुख-दुःख, सही-गलत, शुभ-अशुभ, निगेटिव-पॉजिटिव, प्लस-मायनस आदि। प्रकाश का महत्व तभी समझ में आता है जब अंधकार हो। सुख का अहसास तभी होता हैं जब दुःख का अहसास भी हो चुका हो। श्रीविद्या-साधक के जीवन में भी सुख-दुःख का चक्र तो चलता है, लेकिन अंतर यह है कि श्री विद्या- साधक की आत्मा व मस्तिष्क इतने शक्तिशाली हो जाते है कि वह ऐसे कर्म ही नहीं करता कि उसे दुःख उठाना पड़े किंतु फिर भी यदि पूर्व जन्म के संस्कारों, कर्मो के कारण जीवन में दुःख संघर्ष है तो वह उन सभी विपरीत परिस्थितियों से आसानी से मुक्त हो जाता है। वह अपने दुःखों को नष्ट करने में स्वंय सक्षम होता है।

श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुरउपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता हैद्य लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्ति- संपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया थाद्य त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त कियाद्। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।

दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि –

यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो; यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,

अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।

त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किरण जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण करें। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।

श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महा विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।

गौड़ संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं। त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषदद्य में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षरवाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।

मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्त्र चतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण हैद्य यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिसपर शंकराचाय्र की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।

इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्ति सूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृतकल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्न सूत्र प्रसिद्ध है। इसपर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुर सूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदु सूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौल सूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।

स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चा ने सौंदर्य लहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललिता सहस्र नाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।

श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।

तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।

भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।

ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है। जो सुंदरी से भिन्न है उसमें प्रपंच नहीं है। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।

1) तारा पञ्चाक्षर मन्त्र –
-ॐ ह्रीं त्रीं हुँ फट् ।
यदि इस मन्त्र के आदि में आदि बीज हटा दिया गया तो यह एक जटा नामक मन्त्र हो जाता है । इसी प्रकार आदि बीज और अंन्त्य बीज से रहीत कर देने पर यह मन्त्र नील सरस्वती का हो जाता है ।।
2) एक जटा मन्त्र –
— ह्रीं त्रीं हुँ फट् ।।
3)नील सरस्वती मन्त्र –
— ह्रीं त्रीं हुँ ।।

तारावर्ण के अनुसार वशिष्ठ ऋषि ने बहुत समय तक इस विद्या की उपासना की , किन्तु उन्हें सिद्धि प्राप्त नही हुई ।क्रोधित होकर देवी को शाप दिया तबसे यह विद्याफल देने मे अक्षभ बो गयी।

बाद मे उन्होंने शान्त होने पर इसका शापोद्धार प्राप्त किया । व ” ॐ ह्रीं स्त्रीं हुँ फट् ” इस विद्या से साधना करने का निर्देश दिया ।तबसे तारा।का यह बीज ” त्रीं ” वधू बीज कहलाने लगा ।।
‘नील तन्त्र’ के अनुसार “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ” यह पञ्चाक्षर मन्त्र अति दिव्य एवं पवित्र है ।
‘महीधर’ के अनुसार तारा के मन्त्र उपर्युक्त है ।किन्तु ‘एक तारा कल्प’, विश्वसार तन्त्र’ , नीलतन्त्र’ , आदि ग्रंथों में उक्त मन्त्रों में तारा बीज “त्रीं” के स्थान पर वधू बीज “स्त्रीं” का निर्देश किया है
उक्त मन्त्रोंका विनियोग एक ही है –
विनियोग –
” ॐ अस्य श्री तारामन्त्रस्य अक्षोभ्यऋषिः बृहस्पतिछन्दः तारादेवता ह्रीं बीजं हुँ शक्तिः आत्मनोऽभीष्ट सिध्द्यर्थ तारामन्त्र जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादिन्यास –
ॐ अक्षोभ्यऋषये नमः शिरसि ।
ॐ बृहतीछन्दसे नमः मुखे ।
ॐ तारादेवतायै नमः हृदि ।
ॐ ह्रीं (हूँ ) बीजाय नमः गुह्ये ।
ॐ हूँ (फट्) शक्तये नमः पादयोः ।
ॐ स्त्रीं कीलकाय नमः सर्वांङ्गे ।
कराङ्ग न्यासः –
ॐ ह्रां अंगुष्टाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ हैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
इसी प्रकार हृदयादिन्यास भी करना चाहीए।

पता :

16/8, माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर, अम्बेडकर नगर, इन्दौर, मध्यप्रदेश, पिनकोड : 452001 भारत।

हवाई मार्ग सर कैसे पहुँचें :

इन्दौर के अहिल्याबाई होलकर अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के निकटतम हवाईजहाज़ से उतरना है जो मध्यप्रदेश के इन्दौर से लगभग 10.1 किलोमीटर दूर स्थित है। आप कैब किराए पर ले सकते हैं या प्री-पेड टैक्सी बुक कर सकते हैं जो हवाई अड्डे और शहर के बीच यात्रा करने के लिए आसानी से हवाईअड्डे पर ही उपलब्ध हैं वहाँ से आसानी से 10.1 किलोमीटर की यात्रा से 26 मिनेट्स में पहुँच सकते हैं माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर।

रेल मार्ग से कैसे पहुँचें :

ट्रेन से आना सरल है, एक विशाल नेटवर्क पर स्थित है जो इसे प्रमुख स्टेशन्स से जोड़ता है। आप इंदौर जँक्शन से टैक्सी, ऑटो- रिक्शा या ई-रिक्शा किराए पर ले कर के 3.6 किलोमीटर की दूरी तय करके 10 मिनेट्स मेंवाया रेसकोर्स मार्ग से पहुँच सकते हैं माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर।

सड़क मार्ग सर कैसे पहुँचें :

बस से दिल्ली कशमीरीगेट के ISBT अंतर्राज्यीय बस अड्डे से अपनी कार या बस द्वारा आते हैं तो वाया NH 44 मार्ग से 843.6 किलोमीटर की दूरी तय करके 14 घण्टे 44 मिनेट्स में पँहुँच जाओगे माँ राज राजेश्वरी देवी मन्दिर।

माँ राज राजेश्वरी देवी की जय हो। जयघोष हो।।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

LIVE OFFLINE
track image
Loading...