गौतम बुद्ध की जीवन कथा : प्रकरण-1-4 तक,सूरज पाण्डेय /सिद्धार्थ पाण्डेय की कलम से
बुद्ध, या सिद्धार्थ गौतम, का जन्म लगभग 567 ईसा पूर्व, हिमालय की तलहटी के ठीक नीचे एक छोटे से राज्य में हुआ था। उनके पिता शाक्य वंश के मुखिया थे। ऐसा कहा जाता है कि उनके जन्म से बारह साल पहले ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की थी कि वह याएक सार्वभौमिक राजा या एक महान ऋषि बनेंगे।
प्रकरण-1
शुद्धोधन ने झगड़े को शांत करने के लिए अंजन की दो कन्याओं-महामाया तथा महाप्रजापति से विवाह किया था
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था। किसी-किसी राज्य पर एक राजा का अधिकार था। ऐसे राज्य सोलह थे और इन्हें जनपद कहा जाता था। जिन राज्यों पर किसी एक राजा का अधिकार न था वे संघ या गण कहलाते थे। उस समय अंग, मगध,काशी,कोशल,वणिज,मल्ल,चेदी, वत्स,कुरू,पंचाल,मत्स्य,सौरसेन, अष्मक,अवन्ति,गन्धार तथा कम्बोज जनपद थे। कपिलवस्तु के शाक्य, पावा तथा कुसीनारा के मल्ल, वैशाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह,रामगाम के कोलीय, अल्लकप्प के बूलि, केसपुत्त के कालाम, पिप्पलीवन के मौर्य तथा सुसुमगिरी के भग्ग (भर्ग) संघ या गण की श्रेणी में आते थे।
गणराज्यों की शासन-व्यवस्था लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों पर आधारित थी। इनका शासक जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति होता था, जिसे राजा कहा जाता था। समस्त प्रश्नों का हल परिषद द्वारा किया जाता था। गणराज्य के अन्य प्रमुख अधिकारी उप-सभापति, पुरोहित आदि थे। शासन के तीन प्रमुख विभाग थे—–सेना, अर्थ और न्याय । सेना का प्रमुख अधिकारी सेनापति कहलाता था। अर्थ-विभाग का प्रमुख अधिकारी भण्डगारिक कहलाता था। न्याय-व्यवस्था क्षमता एवं स्वतंत्रता के आधार पर अवलंबित थी।न्यायालय विभिन्न श्रेणियों में विभक्त थे। नगर की व्यवस्था का भार
नगरगुत्तिक (नगर के रक्षक) के ऊपर था। तथा ग्राम भोजक ग्राम का शासक था।
कपिलवस्तु के शाक्यों के गणतंत्र में कई राजपरिवार थे तथा एक-दूसरे के बाद क्रमशः शासन करते थे, राज परिवार का मुखिया राजा कहलाता था। शाक्य राज्य भारत के उत्तर पूर्व कोने में था। यह एक स्वतंत्र राज्य था किंतु बाद में कोशल नरेश (संभवतः प्रसेनजित) ने इसे अपने शासन-क्षेत्र में शामिल कर लिया था। कपिलवस्तु में जयसेन नाम का एक शाक्य रहता था।
उसके पुत्र का नाम था सिंह हनु था । सिंह हनु की पत्नी का नाम कच्चाना था। उसके पांच पुत्र थे-शुद्धोधन, धौतोदन, शुक्लोदन, शाक्योदन तथा अमितोदन। उसकी दो लड़कियां भी थीं-अमिता तथा प्रमिता। इनके परिवार का गोत्र आदित्य था। कपिलवस्तु के पूर्व में रामगाम के कोलीय थे। बीच में रोहिणी नदी थी जो दोनों की सीमा का भी निर्धारण का कार्य भी करती थी। शाक्यों तथा कोलीय लोगों में रोहिणी नदी के जल के लिए प्रायः झगड़े होते रहते थे। शुद्धोधन ने इस झगड़े को शांत करने के लिए ही देवदह नामक गाँव में रहने वाले अंजन की दो कन्याओं-महामाया तथा महाप्रजापति से विवाह किया था।
प्रकरण-2
महामाया ने स्वप्न में सुमेध नामक बोधिसत्व को देखा,महामाया के स्वप्न का अर्थ–घर में रहा तो चक्रवर्ती राजा होगा और यदि गृह त्याग कर सन्यासी हुआ तो बुद्ध बनेगा
राजा शुद्धोधन के पास बहुत बड़े-बड़े खेत तथा अनगिनत नौकर चाकर थे। कहा जाता है कि अपने खेतों को जोतने के लिए उसे एक हजार हल चलावाने पड़ते थे। ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने को थी। खेतों की जुताई का कार्य जोरों पर था। वर्षा से पहले ही यह कार्य पूर्ण होना था। शाक्य-राज्य के लोग वर्षा ऋतु के आषाढ़ महीने में एक उत्सव मनाया करते थे। इस उत्सव में सभी उत्साह से भाग लेते थे। यह उत्सव सामान्यतया सात दिन चलता था।
इस बार महामाया ने यह उत्सव बड़े ही आमोद-प्रमोद, शान-शौकत एवं नशीली वस्तुओं के परित्याग के साथ मनाया। सातवें दिन प्रातः काल उठकर सुगंधित जल से स्नान किया। चार लाख कार्षापणो का दान दिया। अच्छे वस्त्र पहने तथा उत्तम आहार किया। दिनभर आमोद-प्रमोद के पश्चात रात्रि में वह अपने सुसज्जित शयनागार में पति के साथ सो गई। निद्रा-ग्रस्त महामाया ने स्वप्न में सुमेध नामक बोधिसत्व को देखा। वह महामाया का पुत्र बनना चाहता था।
महामाया ने उसके प्रस्ताव को सानंद स्वीकार किया। उसी समय महामाया की आंख खुल गई। दूसरे दिन महामाया ने शुद्धोधन से अपने स्वप्न की चर्चा की। राजा ने स्वप्न-विद्या के प्रसिद्ध आठ ब्राह्मणों-राम,ध्वज,लक्ष्मण,मंत्री,कोडञ्ज,भोज,सुयाम और सुदत्त को बुला भेजा। उनका यथोचित सम्मानकर, दान-दक्षिणा से संतुष्ट करने के पश्चात राजा ने उनसे महामाया के स्वप्न का अर्थ पूछा। ब्राह्मणों ने बताया कि आपके यहां बड़ा ही प्रतापी पुत्र होगा। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती राजा होगा और यदि गृहत्याग कर सन्यासी हुआ तो बुद्ध बनेगा। वह विलक्षण बुद्धि से संपन्न होगा तथा मनुष्यो को अज्ञान से मुक्त करेगा।
समाचार सुनकर पूरे राज्य में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। महल में भी दास-दासियों सहित सभी के हृदय-कमल खिल उठे। महामाया को किसी प्रकार का कष्ट ना हो इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाने लगा। राजा भी अत्यंत प्रसन्न थे, किंतु ब्राह्मणों की एक बात उनके मस्तिष्क में हलचल पैदा कर रही थी। उन्हें आशंका थी कि उनका पुत्र सन्यासी न बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो राज्य का क्या होगा, मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा ? इसी चिंता और प्रसन्नता के द्वंद्व में फँसे थे। इसी उहापोह में समय व्यतीत होता चला गया।
प्रकरण-3
देवदह के लुम्बिनी वन में शाल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ के जन्म लेते ही देवगण ने बुद्ध शब्द की घोषणा कर दी थी ।
महामाया दस माह तक बोधिसत्व को अपने गर्भ में धारण किए रही। उस समय की परंपरानुसार प्रसव हेतु मायके जाना पड़ता था ।अतः समय समीप आया जान महामाया ने शुद्धोदन महाराज से अपने पिता के घर देवदह जाने की इच्छा व्यक्त की। पत्नी की इच्छा को सहर्ष स्वीकार कर राजा ने कपिलवस्तु से देवदत्त तक के मार्ग को केला, पूर्णघट, ध्वज, पताका आदि से अलंकृत करवाया, तथा रानी को एक सुसज्जित पालकी में अनेक सेवक-सेविकाओं के साथ मायके भिजवा दिया।
देवदह के मार्ग में लुम्बिनी वन था जिसमें शाल के वृक्ष थे। यह वन पुष्पाच्छादित एवं अत्यंत मनोरम था। इस वन के सौन्दर्य का रसपान करने की इच्छा से रानी ने पालकी को थोड़ी देर के लिए वहाँ रुकवाया।
महामाया पालकी से उतरी और एक सुंदर शाल वृक्ष की ओर बढ़ी । एक शाखा हवा के झोंके के साथ उसके हाथ में आ गई। एक हल्के से झटके के साथ शाखा ऊपर उठी और उस झटके से महामाया को प्रसव-वेदना आरंभ हुई। सेवक-सेविकाओं ने उनके आस-पास कनाल लगा दी। खड़े ही खड़े महामाया ने पुत्र को जन्म दिया। 563 ई.पू. में वैशाख पूर्णिमा के दिन बालक ने जन्म लिया।
इस सुखद घटना की सूचना राजभवन में पहुंचते ही मृदुल शैयोयोपकरण युक्त सुचित्रित शिविका माता और नवजात शिशु को घर ले आने के लिए प्रेषित की गई। नवजात शिशु को देखने के लिए देवताओं की भीड़लग गई,किंतु उन्हें मनुष्य देख नहीं सके। देवता शिविका को अपने कंधों पर उठाये चल रहे थे।
विवाह हुए बहुत समय बीत जाने पर पुत्र-रत्न की प्राप्ति से राजा एवं प्रजा में हर्ष का ज्वार- सा उमड़ पड़ा। पूरे राज्य में बड़ी ही धूमधाम से पुत्र जन्मोत्सव मनाया गया। लोग राजा को बधाई देने लगे। समीपवर्ती तथा दूरवर्ती देशों से भी भांति-भांति की भेंट लेकर लोग आने लगे।
हिमालय में रहने वाले असित नामक एक बड़े ऋषि ने देखा कि देवगण बुद्ध शब्द की घोषणा कर रहे हैं और आनन्दोत्सव उत्सव मना रहे हैं तो वह भी उसके दर्शनार्थ अपने भानजे नालक के साथ शुद्धोधन के घर पधारे। महल में उनका यथोचित स्वागत किया गया। ऋषि ने राजा की जयकार करते हुए उसे आशीर्वाद दिया। राजा ने असित ऋषि को साष्टांग दंडवत किया तथा उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। ऋषि से विनम्रता पूर्वक उनके पधारने का कारण पूछा। असित ऋषि ने कहा कि मैं आपके पुत्र को देखने की इच्छा से यहां आया हूंँ। राजा बालक को असित ऋषि के सामने ले आया।
बालक के लक्षणों को देखकर असित के मुंह से निकला-निस्संदेह यह अद्भुत पुरुष है। वे आसन से उठे, दोनों हाथ जोड़े और उसके पैरों पर गिर पड़े। उन्होंने बालक की परिक्रमा की और उसे अपने हाथों में लेकर विचार मग्न हो गए। ध्यानस्थ अवस्था में बालक के प्रति की गई भविष्यवाणी उसके कानों में गूंजने लगी। असित ऋषि को निश्चय था कि यह बालक गृहस्थ नहीं बनेगा। वह बालक की ओर देखकर सिसकियां भर-भर कर रोने लगा। ऋषि को इस प्रकार रोता देखकर शुद्धोदन किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठा। उसने घबराकर उनके रोने का कारण पूछा। तब ऋषि ने कहा कि बालक का भविष्य तो एकदम निर्विघ्न एवं उज्जवल है। मैं तो अपने लिए रो रहा हूँ। राजा के पुनः पूछने पर असित ऋषि ने बताया कि यह बालक निश्चित ही बोधी लाभ करेगा। यह सम्यक् सम्बुद्ध होगा किंतु तब मैं इस संसार में नहीं रहूंगा। उसकी पूजा करने का सुख मेरे भाग्य में नहीं है।
राजा ने असित ऋषि उनके भांजे नालक (नरदन्त) को श्रेष्ठ भोजन कराया तथा वस्त्रदान देकर उनकी वंदना की, तब असित ऋषि ने अपने भांजे नालक से कहा कि इस बालक के बुद्ध होने पर इसकी शरण ग्रहण करना । इसी में तुम्हारा कल्याण है। इसके पश्चात असित ऋषि राजा से विदा लेकर अपने आश्रम को लौट गया।
प्रकरण-4
सिद्धार्थ (समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला) अपने गोत्र गौतम के कारण गौतम कहे गए
बोधिसत्व के जन्म के शुभ प्रभाव राज्य में परिलक्षित होने लगे। कैदियों को मुक्त कर दिया गया। चारों ओर का वातावरण रम्य एवं सुखद ही सुखद हो गया।
पांचवें दिन बालक को नहलाया गया। राज भवन को चारों प्रकार के गंधों से लिपवाकर फूलों से सजाया गया। राजा ने वेदों के पारंगत एक सौ आठ ब्राह्मणों को निमंत्रित किया। उनका यथोचित सत्कार एवं सुभोजन कराने के पश्चात् बोधिसत्व का भविष्य पूछा। इनमें भविष्य जानने वाले वे ही आठ ब्राह्मण थे जिन्होंने स्वप्न का अर्थ बताया था। कौण्डिन्य तरुण ब्राह्मण ने कहा-इसके घर में रहने का कोई कारण नहीं है। अवश्य ही यह विवृत कपाट बुद्ध होगा। ब्राह्मणों ने बालक का नामकरण संस्कार किया। उसका नाम सिद्धार्थ (समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला) रखा गया। चूँकि उसका गोत्र गौतम था इसलिए उसे सिद्धार्थ गौतम कहा जाने लगा।
बालक के जन्म की खुशियां और उसके नामकरण की विधियां अभी समाप्त नहीं हुई थी कि महामाया अचानक बीमार पड़ी। उसके रोग ने गंभीर रूप धारण कर लिया। तब उसने अपनी मृत्यु निकट जान शुद्धोधन और प्रजापति को अपनी शय्या के पास बुलाया और कहा कि मेरा अंतिम समय आ गया है। प्रजापति मैं अपना बच्चा तुम्हें सौंपती हूँ। मुझे विश्वास है कि उसके लिए तुम उसकी मां से भी बढ़कर होगी। यह कहते कहते ही वह चल बसी। शुद्धोधन और प्रजापति फूट-फूट कर रोने लगे।
प्रजापति ने अत्यंत लाड़-प्यार से सिद्धार्थ का लालन-पालन किया। वह उसे अपना दूध पिलाती,नहलाती और अपनी ही गोद में लोरिया गाकर सुलाती।
सिद्धार्थ का एक छोटा भाई भी था। उसका नाम था नंद। वह शुद्धोदन का महाप्रजापति से उत्पन्न पुत्र था। उसके ताया-चाचा की भी कई संताने थी। महानाम और अनुरूद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे तथा आनंद अमितोदन का पुत्र था।देवदत्त उसकी बुआ अमिता का पुत्र था। महानाम सिद्धार्थ से बड़ा था और आनंद छोटा। सिद्धार्थ उनके साथ खेलता खाता बड़ा हुआ।
जब सिद्धार्थ थोड़ा चलने-फिरने योग्य हो गया तो शाक्य-मुखिया इकट्ठे हुए और उन्होंने राजा शुद्धोदन के सामने शाक्य रीति-रिवाजानुसार बालक को ग्राम-देवी अभया के मंदिर में ले चलने का प्रस्ताव रखा। महाप्रजापति ने बालक को तैयार किया। सिद्धार्थ ने माता से पूछा कि उसे कहां ले जाया जा रहा है तो प्रजापति ने बताया कि उसे ग्राम-देवी अभया के मंदिर ले जाया जा रहा है। यह सुनकर वह मुस्कुरा दिया लेकिन शाक्यों की रीति-रिवाज का ध्यान कर चला गया।
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