@ कमल उनियाल द्वारीखाल उत्तराखंड
भीगी पलकों, काँपते लफ्जों ने सुनाई पलायन की दास्ताँ जैसें जैसें हम विकास की दौड़ में भाग रहे हैं उसी तरह हम अपने आभासी दुनिया में हमारे रिश्ते तेजी से गुम हो रहे हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलो में करीब अस्सी प्रतिशत बुजुर्ग जन अकेलापन महसूस कर रहे हैं।
कभी पलायन का दर्द, कभी बंजर भूमि का दर्द, कभी अपनो से दूर होने का दर्द का समंदर आँखो में उमड पडता है। अपनो से साथ बिताया गया पल या अपनो के साथ मिलन में हर साल तेजी से कमी आ रही है। वृद्धा तारा देवी, और मन्था देवी ने बताया कि उत्तराखंड में रोजगार नहीं रहने के कारण हमारे बच्चों ने पलायन कर लिया है। गाँवो में अब बुजुर्ग लोग रह गये हैं।
अनेक घरो में ताला लग गया है गांवो में सत्तर प्रतिशत अपने घरों में एकाकीपन का जीवन जी रहे हैं। अपनो से दूरी होने के कारण वृद्ध जनो का अपनत्व और विश्वास का अटुट प्रेम अब नहीं रह गया है। अपनो की याद में तरसती आँखै अपनो पोतो की आवाज सुनने को दादा कैसै हो सिर्फ़ यही दो शब्दों के लिए जीवन बिताने वाले वृद्ध जनो की आशा धीमे धीमे टूट रही हैं। बुजुर्ग हीरामणी, गेन्दा सिंह, रामलाल पुराने दिन को याद करके भावुक हो गये उनका कहना था कि उस वक्त पहाड़ का कठिन जीवन भी आसान लगता था।
जंगलो में घस्यारियो का खदेड़ गीत, हल लगाते समय आलू, मूला, अरबी, गुदड़ी की मिक्स साग, गेहूँ और मंडुआ की मोटी रोटी घी का कटोरा, बच्चों का पके हुये हिसर,बेडू तिमला, भमोरा किनगोडा के फल के लिए झुंड बनाकर जंगल जाना, फसल पकने पर थडिया चोंफला, ब्याह शादी में मांगल गीत भी अब पलायन कर गये हैं। अब सिर्फ पुरानी यादें बची है। धीरे धीरे दुनिया अकेली हो गयी है लोगो कि भीड तो दिखती है पर आदमी अकेलापन महसूस कर रहा है।
अपनो से दूर होना भी अब निराशा हताशा अवसाद को जन्म दे रहा है। हमारे बुजुर्गो ने अपने नैसगिर्क गुण, सादगी, ईमानदारी, दया धर्म, परिश्रम, भाईचारा से जो सम्मान, विश्वास हासिल किया था वह इस चकाचौंध की दुनिया मे सिमट कर रह गया है।