“मीडिया और सिनेमा का सांस्कृतिक माध्यम ” विजय गर्ग की कलम से

“मीडिया और सिनेमा का सांस्कृतिक माध्यम ” 

अभिव्यक्ति के हर माध्यम की अपनी चरित्रगत विशेषता होती है। साहित्य में लेखक अदृश्य बिंबों का सृजन करता है, जबकि सिनेमा पूर्णत: दृश्य माध्यम है। इसलिए साहित्य का सिनेमा में रूपांतरण सीधे-सीधे अदृश्य का दृश्यों में रूपांतरण होता है। वह भी कला या मूर्तिकला की तरह एक स्थिर चाक्षुष बिंब भर में नहीं, बल्कि पूर्णत: जीवंत और प्रत्यक्ष नजर आते जीवन के घटनाक्रम में। जाहिर है कि यह रूपांतरण अतिरिक्त संवेदनशीलता और अपने माध्यम में गहन निपुणता की मांग करता है, और इस हद तक सृजनशीलता की, कि जैसे फिल्म का निर्देशक उसे अपनी ही मौलिक कृति की तरह रचे।

एक व्यक्ति जब पाठक के रूप मे साहित्य पढ़ता है, तो वह अनायास स्वयं उस सृजन प्रक्रिया से संबद्ध हो जाता है। लेखक शब्दों के माध्यम से उसके सामने जो चरित्र प्रस्तुत करता है, उसे वह अपनी तरह से, अपनी कल्पना में सृजित करता है। उसके सामने जो घटनाएं लेखक प्रस्तुत करता है, उन्हें वह स्वयं अपनी कल्पना में आकार देता, और उन्हें घटते हुए देखता है। इस तरह सृजन की एक प्रक्रिया, जो लेखक द्वारा शुरू की जाती है, वह व्यक्तिगत रूप में ही सही, पाठक की कल्पना में साकार होकर पूर्ण होती है। वही व्यक्ति जब फिल्म देखता है, तो उसकी सृजन प्रक्रिया से संबद्ध नहीं हो पाता। इसलिए कि उसके चरित्र अपने पूरे रूप और साज-सज्जा में उसके सामने प्रस्तुत किए जाते हैं। संपूर्ण घटनाक्रम बना कर उसकी आंखों के सामने चलती-फिरती-बोलती वास्तविक जिंदगी की तरह दिखाया जाता है। बेशक वह फिल्म निर्देशक की कल्पना पर आधारित होता है। लेकिन उन्हें सृजित करने में दर्शक की कोई हिस्सेदारी नहीं होती। उसे महज देखना और देख कर पसंद या नापसंद करना होता है। पुस्तक पढ़ कर उसने अपनी कल्पना में जो बिंब सृजित किए होंगे, अगर सिनेमा के बिंब उनके अनुरूप या बेहतर हुए, तब तो वह उसे पसंद कर पाता है अन्यथा नहीं। लेकिन इससे इतर एक बड़ा दर्शक वर्ग वह होता है, जिसने साहित्य में उसे नहीं पढ़ा होता है। वह सीधे उस कहानी का परदे पर ही साक्षात्कार करता है। उसकी स्वीकृति सीधे इस पर निर्भर करती है कि निर्देशक उस साहित्य के कथानक, संवेदना और भावों को कितनी सफलतापूर्वक फिल्म में उतार पाया है। अगर बाहरी दबावों के चलते उसने अनावश्यक समझौते कर लिए हों, तो जाहिर है कि फिल्म अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाती।

साहित्य में सहूलियत यह है कि लेखक पृष्ठ-दर-पृष्ठ चरित्रों के मनोभावों में गहरे उतरता चला जा सकता है, जैसे निर्मल वर्मा के गद्य में होता है। जबकि सिनेमा को अपने पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने के लिए उसके चेहरे पर नजर आते भाव ही पकड़ने होते हैं। वह सिर्फ बाहरी बिंब पकड़ सकता है। उसके मन के भीतर नहीं उतर सकता। लेकिन उसके पास चलते-फिरते चाक्षुष बिंब हैं, आवाज है, लाईटों के प्रभाव हैं, और अब तो आधुनिकतम तकनीक भी है, जो दृश्यों को शब्दों की बनिस्बत अधिक सशक्त ढंग से प्रस्तुत कर सकती है। सामान्यतया जिस दृश्य या भाव को प्रस्तुत करने के लिए लेखक को विस्तार में जाना पड़ता है, उसे कैमरा महज एक क्षण में अधिक वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। साहित्य के पाठक के लिए कोई समय सीमा नहीं होती। वह एक ही पुस्तक को कई दिनों तक पढ़ता चला जा सकता है, बल्कि अनेक बार पढ़ सकता है। एक तरह से वह कृति उसकी संवेदना का हिस्सा हो जाती है। जबकि सिनेमा के सामने उसी कृति को महज ढाई घंटे में प्रस्तुत करने की सीमा होती है। ऐसा करने के लिए उसे बहुत से विस्तार और अंशों को भी उसमें से निकाल देना होता है। साथ ही चुनौती यह भी होती है कि ये तमाम परिवर्तन करते हुए साहित्यिक कृति की मूल कथावस्तु, मूल भावना और मूल संवेदना के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। अगर यह जरूरी संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो फिल्म न तो अपेक्षित प्रभाव छोड़ पाती है, न साहित्यिक कृति के साथ न्याय कर पाती है। बावजूद ऐसी अनेक कठिनाइयों और सीमाओं के, साहित्य का फिल्मों मे रूपांतरण होता है। अंग्रेजी में बड़े पैमाने पर होता है। वहां तो जैसे परंपरा-सी है कि क्लासिक कृतियों पर आधारित क्लासिक फिल्मों का निर्माण हो जाता है, और वह भी वैसी ही भव्यता, समझ और गुणवत्ता के साथ, जैसी रूपांतरण से अपेक्षित होती है। वे स्वयं प्रस्तुतीकरण और कला की उन ऊंचाइयों को छूती हैं, जैसी स्वयं साहित्यिक कृति। आॅस्कर अवार्ड प्राप्त फिल्मों में बड़ी संख्या साहित्यिक कृतियों से रूपांतरित फिल्मों की है।

फिर हिंदी में कहां बाधा आती है? होता है रूपांतरण, लेकिन बहुत कम होता है उसका अनुपात। शरतचंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद या अमृता प्रीतम आदि पर अवश्य कुछ अच्छी फिल्में बनी हैं। लेकिन फिल्मों को बेहतरीन कथानकों की जरूरत होती है, और हिंदी साहित्य में ऐसे कथानकों का भंडार उपलब्ध होता है, जो फिल्मों से अछूता रह जाता है। समांतर फिल्मों के दौर में अवश्य आशा बंधी थी कि सामाजिक समस्याओं से जूझती गंभीर कलात्मक फिल्मों के युग का आगाज होगा, और वे तत्संबंधी साहित्यिक कृतियों को आधार बनाएंगी। कुछ ऐसी बेहतरीन फिल्में आर्इं भी। लेकिन वह दौर दूर तक नहीं जा सका। हिंदी में फिल्मों को महज एक मनोरंजन का साधन मान लेने की जो अवधारणा बनी हुई है, वह गंभीर साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन में बाधा बनती है। फिल्मों को एक व्यवसाय मान कर, उसमें सैकड़ों करोड़ रुपए लगा कर, उसी अनुपात में मुनाफा कमाने की जो व्यावसायिक बाध्यताएं हैं, और उनके चलते जो तमाम तरह के अनुचित समझौते होते हैं, वे उन्हें साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के लिए प्रेरित ही नहीं कर पाते। ऐसा करते समय वे दर्शकों की रुचि को भी खासा कमतर आंकते हैं। जबकि ऐसा है नहीं। जब भी किसी बेहतरीन कहानी पर लीक से हट कर बनी फिल्म आती है, तो दर्शक उसका स्वागत ही करते हैं। इससे आशा बंधती है कि आने वाले समय में साहित्यिक कृतियों के अधिक फिल्मांकन के लिए उर्वरक जमीन तैयार हो रही है।

हालांकि धार्मिक साहित्य पर अवश्य सफल फिल्में बनती रही हैं। बल्कि रामायण और महाभारत पर बने धारावाहिकों ने सफलता के कीर्तिमान स्थापित कर रखे हैं। लेकिन साहित्य तो अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है, और अपने समय का प्रतिबिंब होता है। वह समकालीन समाज में मूल्यों के ध्वंस, मानवीय संबंधों के क्षरण और संस्कृति के अवमूल्यन को प्रतिध्वनित करता है। वह एक भयावह समय को बेनकाब करता है। फिर सिनेमा भी तो अपने समय का प्रतिबिंब होता है। ‘मनोरंजन का साधन’ वाले उसके भाग को छोड़ भी दें, (जो आवश्यक भी है और जिसके स्तर पर ध्यान देना वांछनीय) तब भी उसके दूसरे गंभीर पहलू से गहन सामाजिक यथार्थ का संप्रेषण अपक्षित है। ताकि साहित्य की ऐसी तमाम चिंताओं का उस सशक्त माध्यम में अधिकाधिक समावेश हो और वह अपने अपार दर्शकों के बीच उन अपेक्षाओं पर खरा उतर सके। आवश्यकता है साहित्य के साथ उसके और अधिक घनिष्ट संबंधों की। इस बात पर गहन मंथन अपेक्षित है कि जो प्रतिबद्ध और समर्पित फिल्मकार जोखिम उठा कर साहित्य से रूपांतरित ऐसी फिल्मों का निर्माण करने का साहस करते हैं, उन्हें कैसे अधिक से अधिक आर्थिक और अन्य किस्म का संरक्षण प्रदान किया जाए, ताकि वे फिल्में वृहत्तर दर्शक वर्ग से जुड़ सकें।

” त्योहार और आर्थिक उत्सव उत्सव की लालसा “

भारत उत्सवधर्मी देश है। यहां विभिन्न परंपराओं और क्षेत्रीय संस्कृति का सम्मिश्रण कई नए रंग- बिरंगे अवसर पैदा करता है, जब देशवासियों को उत्सव मनाते देखा जा सकता है। उत्सवधर्मी इस देश में आर्थिक लाभ यही होता है कि साधारण व्यक्ति भी अपनी आर्थिक सीमा से बाहर जाकर खर्च करता है। त्योहार के दिनों में बाजारों में मंदी की उदासी नहीं फैलती। इतने बड़े देश में चूंकि ऐसा होता ही रहता है, इसलिए आज जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी और गिरती हुई मांग के चंगुल में फंसा है, भारत की आर्थिक विकास दर सब देशों से आगे है। मगर हम आठ फीसद की विकास दर तक नहीं पहुंच पाए। पिछले वर्ष इस विकास दर के करीब पहुंच गए थे, इस वर्ष के अंत में यह सात फीसद से भी नीचे जाती दिखाई देती है, लेकिन फिर भी मांग की कमी भारत के लिए कोई समस्या नहीं। हां, इस मांग को पूरा करने के लिए उचित उत्पादन बढ़ाने की समस्या हो सकती है। जैसा कि अर्थशास्त्री और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा राजन ने भी कहा है कि देश विनिर्माण और कृषि विकास की ओर ध्यान दे। उनका कहना है कि पिछले वर्षों में जिन बुनियादी उद्योगों के विकास की ओर हमने ध्यान दिया, उसी के फलस्वरूप आज तरक्की की की मंजिलें तय कर रहे हैं।

आज हम दुनिया की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति हैं, तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि 2047 जब आजादी का शताब्दी महो का शताब्दी महोत्सव मनाएंगे, तो अपना देश विकसित हो चुका होगा और अगर यह दुनिया की सबसे ताकतवर आर्थिक शक्ति नहीं बनता, , तो भी यह चौथी औद्योगिक क्रांति का अगुआ होगा, जो इस बार पूरब से और तीसरी दुनिया से उभरेगी। अपने सांस्कृतिक मूल्यों 5 बल पर पूरी दुनिया का गुरु बन कर उसको रास्ता भी दिखाएगा। है आने वाले दिनों की बात इस समय खबरें भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर आ रही हैं, वे अच्छी हैं। नीति निर्माता भी कुछ ऐसे कदम उठा लेना चाहते हैं जिससे जनता का भला हो सके। इस पर कुछ विवेचन कर लिया जाए। चाहे दावा किया जा रहा है कि नए कर्तव्य समर्पित विकास के माहौल में रोजगार सृजन हो रहा है, लेकिन यह रोजगार कहां हो रहा है? रोजगार की एक अजब स्थिति पैदा हो रही है। जिन लोगों के पास इस बदलती हुई दुनिया की प्रौद्योगिकी का शिक्षण-प्रशिक्षण है, उनके लिए तो नौकरियों की कतार लगी है और कला और विज्ञान संकायों से निकल कर आए नौजवान अपना कोई भविष्य इस बदलते भारत में नहीं पाते। उनके लिए रोजगार प्रदान करने वाले लघु और कुटीर उद्योगों का कोई नया अभियान नजर नहीं आता। आता भी है, तो उसमें निजी क्षेत्र और ‘स्टार्टअप’ के नाम पर परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से धनकुबेरों के लिए भी चोर दरवाजे खोले जा रहे हैं। तो, भारत की प्रगति को समझ कर रोजगार देने का गंभीर प्रयास हो, ताकि देश का निर्माण उसकी विशेष पहचान के अनुसार हो। उस
पर उधार के लबादे ओढ़ा कर उसका वह आधुनिकीकरण न किया जाए, जो उसके मिजाज में नहीं।

वैसे, देश में धूमधाम है कि आने वाले त्योहारी मौसम में प्रगति ही प्रगति, विकास ही विकास दिखाई देगा। इसके साक्षी हैं, शेयर बाजार के सूचकांक और निफ्टी के नए शिखर, क्योंकि इसमें न केवल भारतीय. बल्कि अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा भी दिखता है कि जैसे ही अमेरिका ने अपनी फेडरल नीति में पचास आधार अंक की कमी की, तो विदेशी निवेश जो निकला जा रहा था, वह भारत लौटने लगा। इस बीच भारत के स्थानीय निवेशकों ने भी अपने घरेलू निवेश से शेयर बाजार को बिखरने नहीं दिया। तेजी का यह सिलसिला बनाए रखा। इस तेजी के साथ भारत का नया उभरता हुआ मध्यवर्ग और उसका घरेलू निवेश भी बंधी हुई बैंक एफडी के क्षेत्र से थोड़ा रुख बदल कर शेयरों और म्युचुअल फंड की तरफ आ गया, जिसमें नए निवेश को स्थायित्व देना शुरू कर दिया। इधर अंतरराष्ट्रीय स्थिति के मद्देनजर भारत की जनता उम्मीद करती है कि कच्चे तेल के घटते दाम का फायदा उन्हें भी मिलेगा, क्योंकि अभी तक वह महंगाई की समस्या से जूझ रही है। अगर पेट्रोल और डीजल के दामों में इतने लंबे समय के बाद थोड़ी सी कटौती हो जाए, तो उससे उनके लिए महंगाई को नियंत्रित करने की गुंजाइश पैदा हो जाएगी और उत्सव के इन दिनों को एक नया रंग मिल जाएगा।

इस समय पेट्रोलियम कंपनियों की कमाई बढ़ गई है। इसलिए हर विशेषज्ञ यह कहता है कि पेट्रोल और डीजल के दाम जनसाधारण के लिए कुछ कम करने की गुंजाइश है। हमारे आयात भुगतान का बिल भी घट गया, क्योंकि हम अपनी जरूरत का पचासी फीसद तेल आयात करते हैं, तो हो सकता है इसका लाभ उत्सव के दिनों में कुछ कटौती के रूप में जनता को दे दिया जाए। इस बीच पेट्रोलियम कीमतें केवल एक बार दो रुपए घटाई गई, लेकिन इसकी भरपाई भी राज्य सरकारों ने अपना-अपना वैट बढ़ा कर पूरी कर ली। पंजाब ने भी पिछले दिनों वैट दरें बढ़ाई। मार्च में तो इसका दाम 84-85 डालर प्रति बैरल था, तब दो रुपए दाम घटा दिए गए, तो फिर अब क्यों नहीं घटा कर उत्सव के दिनों में लोगों को यह उपहार दे दिया जाए।

स्वास्थ्य एवं जीवन बीमा पर जीएसटी के लिए मंत्री समूह की बैठक 19 अक्तूबर को होने जा रही है। सूचना है कि त्योहारों के के लिए कई वस्तुओं पर जीएसटी घटाने पर विचार हो सकता है। जीवन बीमा पर दरें घटा दी जाएं। यह मांग विपक्ष ही नहीं, सत्तापक्ष के कुछ नेताओं की भी है। समिति के सामने व्यक्तिगत, समूह और वरिष्ठ नागरिकों, मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोगों और विभिन्न श्रेणियों के अन्य लोगों के लिए चिकित्सा बीमा दरें घटाने की सोच देर से लंबित है। अब अगर बीमा दरों में कटौती का यह उपहार जनता को मिल जाए, तो इससे बड़ा उत्सव और क्या हो सकता है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए इनको भी जीएसटी के दायरे में ले आने का विचार काफी समय ‘चल रहा है। | क्यों जाए। इस परवाह के बगैर कि अगर केंद्र इसे जीएसटी दरों अधीन ले आया, तो राज्य अपनी कर दरों को बढ़ा कर ‘कर-खोरी’ शुरू कर देंगे। त्योहारों के दिन शुरू हो गए हैं। जनता को अगर यह चंद कल्याणकारी कदम उठते हुए नजर आ जाएं, तो शायद यह उनके लिए एक बड़ा आर्थिक उत्सव मनाने की भूमिका हो सकती है। वैसे भी कहा जाता है कि भारत प्रजातांत्रिक समाज के लिए प्रतिबद्ध है और गरीब की चिंता, उसे संपन्न देशों से अधिक है।

” समय यात्रा (टाइम मशीन) “

जब मैं छोटा था, तो मुझे टाइम मशीन धारावाहिक बहुत पसंद थे, यह बहुत अच्छा था जब नाटकों के पात्र अपने पिछले जीवन में वापस चले जाते थे या भविष्य की यात्रा करते थे। काश मेरे पास भी ऐसी कोई मशीन होती और मैं बड़े होकर भी अतीत और भविष्य की यात्रा कर पाता, तब भी इन फिल्मों के प्रति मेरा प्रेम कम नहीं हुआ, लेकिन मैं यह जरूर समझ गया कि यह सब काल्पनिक फिल्में हैं मशीन में दिखाया गया है पिछले साल ये हरियाणा के एक गांव में शादी में जाने का बहाना बन गयानीचे उतरते ही उसने इधर-उधर देखा। “आह गाँव, गली, घर… सब वैसा ही है जैसे बचपन में भुआ का गाँव हुआ करता था।” आधुनिकता का नामो-निशान कहां है? गंदगी भरी गलियां… घर पक्के लेकिन साधारण हैं, एक-एक घर में चार-पांच भैंसें बंधी हुई हैं और हर घर के बाहर मुलायम जूठन के ढेर हैं। ”यह कौन सी दुनिया में आएगा?”, सोचते-सोचते शादीशुदा जोड़ा घर की ओर चल पड़ा। वह एक बच्चे की तरह सभी बड़े दरवाज़ों से गुज़रता हुआ विवाह घर में दाखिल हुआ। “उन्होंने बिस्तर भी बनाए?”वे बिस्तर पर लेटे हुए थे. घर में बने लड्डू-जलेबियों की खुशबू ने मन मोह लिया, कुछ ही मिनटों में स्टील के बड़े गिलासों में चाय के साथ मिठाइयाँ परोस दी गईं। ….बचपन की शादियों का स्वाद चख लिया। थोड़ी देर बाद नानक-मेल आ गया। “निन बंबीहा बोले…।” नाचने वाले नानकों का लड्डुओं और शगुन से स्वागत किया गया। नहाने-धोने की एक रस्म होती थी, यह रस्म वतना के लोगों के गीतों और मंत्रोच्चार के साथ की जाती थी। फिर रात की रोटी साधारण होती है…दाल और सब्जी के साथ। “पंजाब में कितना खर्च बढ़ गया है? जागो और लाखों चुकाओ।”खर्चा तो होता ही है…” हम पूरी तरह तुलना के मूड में थे. रात को जागने पर मामी के पास रोशनी वाला आधुनिक जागो था तो आधुनिकता की झलक मिलती थी। “काश! यह भी एक पुराना जागो होता, जिसमें आटे के दीये होते।” हम बहुत जल्दी सोचना बंद नहीं करते. लेकिन जल्द ही ये सब भुला दिया गया. नानकिया-दादाकी प्रतियोगिता कठिन थी। दोनों पक्षों में पूरी लड़ाई हुई। कई सालों बाद दिखा असली गधे का रंग! बचपन में ऐसी ही शादियाँ देखने को मिलती थीं, जल्द ही ये सभी महंगी आधुनिक शादियों में बदल गईं।यह बदलाव अच्छा था। लेकिन दिन-ब-दिन शादियां महंगी होती जा रही हैं और उनमें सादगी खत्म होकर गरीबी का रूप लेती जा रही है। आज की शादियां सच्ची खुशी से ज्यादा दिखावा बन गई हैं। इसलिए कभी-कभी तंग आकर वापस लौटने का मन करता है। कानफोड़ू शोर, सादगी और समृद्ध विरासत के दर्शन से दूर शांति की प्राप्ति बिल्कुल ताजगी भरी थी। …और मेरी ‘टाइम-ट्रैवल’ की आदत पूरी हो गई। अगर कभी मौका मिले तो तीस साल पहले के समय में वापस जाइए और अपने बच्चों को ‘टाइम मशीन’ के जरिए वापस भेजिए।पंजाब अवश्य जाएँ। ….लेकिन जल्दी जाइये क्योंकि पता नहीं कब ‘आधुनिकता’ इस क्षेत्र पर भी कब्ज़ा कर ले।

” निजीकरण बनाम कल्याणकारी राज्य “

निजी क्षेत्र का अनावश्यक पक्ष लेना अब बंद करना होगा। अब ऐसे आर्थिक सुधारों की नींव रखने का समय आ गया है, जिसमें ‘कल्याणकारी राज्य’ के लिए निजी क्षेत्र को भी बराबर का जिम्मेदार बनाया जाए। इस समय स्थितियां बड़ी विपरीत हैं। हम आर्थिक तरक्की के भ्रम में दिन-ब- दिन खुद को हांक रहे हैं। दूसरी तरफ, इस बात की स्वीकृति भी दे रहे हैं कि देश के गरीब आदमी की आय बढ़ाने के लिए एक लंबा सफर तय करना अभी बाकी है। गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक असमानता एक मुख्य बाधा है। इन दिनों एक अजीब द्वंद्व या छलावा भी दिखता है, जब कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी के साथ-साथ सरकारों द्वारा अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए सामाजिक कल्याण को आर्थिक नीतियों में ज्यादा तरजीह दी जा रही है। इससे आर्थिक विकास पर बहुत विपरीत असर पड़ रहा है। राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में वह सब कुछ शामिल हो रहा है, जो लोकलुभावन अधिक है, सर्वहित के लिए कम कल्याणकारी है। इससे राज्यों पर आर्थिक दबाव लगातार बढ़ रहा है।

नब्बे के दशक में उदारीकरण से निजी क्षेत्र को आगे बढ़ने का मौका मिला, पर अब समय आ गया है कि कल्याणकारी राज्य और सामाजिक कल्याण दोनों का मिश्रण गरीबी दूर करने के लिए एक ! एक मुख्य उद्देश्य के तौर पर आर्थिक नीतियों में जगह ले और उसके संचालन की जिम्मेदारी सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र भी उठाए। भारत में कभी आर्थिक नीतियों में निजी क्षेत्र को एकाधिकार नहीं दिया गया। आजादी के से आर्थिक नीतियां सरकारी संरक्षण में ही रहीं। हालांकि आर्थिक विकास के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि सरकारी संरक्षण में बनीं, पली और बढ़ीं आर्थिक नीतियां, जिन्हें लोकहितकारी राज्य बनाने की सोच से देश के आर्थिक विकास को एक सुस्त वृद्धि ही मिली। इसी कारण हम विकसित मुल्कों की तुलना में पिछड़ते गए। इन दिनों अमेरिका में आर्थिक नीतियों का विरोध हो रहा है। वहां इस बात की मांग उठ रही है कि अर्थव्यवस्था का रुख अब पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ मुड़ना चाहिए। इसके बाद से यह चर्चा विश्व की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भी शुरू हो गई है कि बदलाव का रुख उन्हें भी अपनाना होगा या उसमें अभी देरी है। भारत में भी पिछले कुछ अरसे से यह सुनने को मिलता कि देश में पूंजीपतियों की संख्या बढ़ रही जबकि गरीबी कम नहीं हो रही। यह कोई हैरत की बात नहीं, बल्कि पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के चलते पैदा हुई आर्थिक विषमता का परिणाम है।

समाज में पूंजीवाद का विरोध इसलिए भी जायज लगता है। कि करीब सभी जगह सरकारें आर्थिक विकास की बागडोर पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले कर देती हैं और कई दफा उनकी गलतियों के बावजूद उन्हें संरक्षित भी करती हैं। अमेरिका में तो यह सब बहुत आम हो गया है। 2005-06 में निजी क्षेत्र की गलत नीतियों के चलते ही अमेरिका में मंदी का सामना करना पड़ा। मगर यह सोचना भी आवश्यक है कि क्या समाजवाद के माध्यम से आर्थिक विकास को वह तेजी दी जा सकती है, जो पूंजीवाद की नीतियों से मिलती है ? आर्थिक नीतियों के सरकारी संरक्षण के दौरान भारत में 1960 से 1990 के तीन दशकों में प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि मात्र 1.6 फीसद थी। 1990 के बाद से अब तक यह 3.6 फीसद रही। वहीं वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक का समय आर्थिक सुधारों के कारण काफी तेजी से बढ़ने का था। इसलिए वृद्धि दर 4.3 फीसद थी और 2010 के बाद से प्रति व्यक्ति विकास दर ने अपने अधिकतम स्तर 4.9 फीसद को छुआ। गौरतलब है कि 1991 के बाद भारतीय आर्थिक नीतियों में उदारीकरण को सम्मिलित कर लिया गया था और फिर सरकारी नियंत्रण लगातार कम होता चला गया। वर्ष 1975 तक भारत, चीन और वियतनाम में प्रति व्यक्ति आय लगभग बराबर थी, पर वर्ष 2000 के बाद से चीन और वियतनाम में प्रति व्यक्ति आय 35 से 50 फीसद के बराबर बढ़ी। आज चीन में प्रति व्यक्ति आय भारत से ढाई गुना अधिक है।

इसका कारण भारत में आर्थिक नीतियों में उदारीकरण को काफी देर से शामिल किया जाना रहा है और परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय भी एक समय के बाद ही बढ़ी अगर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों से आर्थिक विकास तेजी से बढ़ता है, तो फिर इसका आमजन में विरोध क्यों हैं? इसके पीछे कुछ संभावित कारणों में से एक, सरकारों द्वारा निजी क्षेत्र को बहुत हद तक संरक्षित करना है। अमेरिका के संदर्भ में इसे कई दफा दिवालिया होने वाली कंपनियों को बचाने से समझा जा सकता है, वहीं भारत के संदर्भ में इसे व्यक्तियों की वित्तीय आय पर लगने वाला कर तुलनात्मक रूप से कंपनियों के मुनाफे पर लगने वाले कर से बहुत अधिक है। इसकी पुष्टि आर्थिक आंकड़ों से हो जाती है। वर्ष 2023- 24 में भारतीय कंपनियों से मिलने वाले कर की राशि 9.3 लाख करोड़ थी, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के जीडीपी का 3.11 फीसद था। वहीं व्यक्तिगत आयकर का संग्रह 10.22 लाख करोड़ के आसपास था, जो जीडीपी का 3.45 फीसद था। क्या इसका अर्थ है कि भारतीय कंपनियां कम मुनाफा कमा रही हैं, इसलिए वे कम कर का भुगतान कर रही है? यह एक गलत अवधारणा है।

एक ताजा आंकड़े के मुताबिक तकरीबन पैंतीस हजार भारतीय कंपनियों का कर से पूर्व का पूर्व का मुनाफा पिछले पांच वर्षों में करीबन 144 फीसद बढ़ा है। इसके अलावा स्टक मार्केट में सूचीबद्ध पांच हजार कंपनियों के मुनाफे में पिछले पांच वर्षों में 186 फीसद की बढ़ोतरी हुई, जबकि उनके द्वारा दिया गया कर 35 फीसद ही बढ़ा है। कंपनियों के कर संग्रह में में जारी इस कमी के चलते ही पिछले पांच वर्षों में यह जीडीपी के 3.51 फीसद से गिर कर 3.11 फीसद पर आ गया है। वहीं व्यक्तिगत कर संग्रह 2.44 से बढ़कर 3.45 फीसद हो गया है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है fen 1991 के आर्थिक सुधारों के दौर में कंपनियों पर कर की दर 45 फीसद थी, जो वर्तमान समय में घट कर मात्र आधी रह गई है। हालांकि, इसके पीछे का मुख्य कारण भारतीय कंपनियों के उत्पादों को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक कीमत पर लाना है। भारत के संदर्भ में आर्थिक नीतियों में फेरबदल को सदैव लोकतंत्र की छाया में देख कर चलना जरूरी है। मगर भारत ने कभी पूर्ण रूप से पूंजीवाद के प्रारूप को नहीं अपनाया। इसने हमेशा कल्याणकारी राज्य की छवि को बरकरार रखने की कोशिश की है। इस पक्ष पर ‘वर्तमान राजनीति पारस्परिक विरोधाभास बहुत अधिक है, जिससे आमजन निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा कि सरकार की नीतियां उनके विकास के लिए हैं या उन्हें लुभाने का एक तरीका।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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