आसियान – मुलाकाते और बढ़नी चाहिए, सरिता चतुर्वेदी की कलम से
पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो आसियान देशों (ब्रुनेई और सिंगापुर) की अपनी यात्रा के दौरान कहा था कि भारत पूरे क्षेत्र में विकास की नीति का समर्थन करता है,विस्तारवाद नीति का नहीं। और यह टिप्पणी अप्रत्यक्ष रूप से चीन के लिए थी।
आसियान में 10 देश हैं , ब्रुनेई और सिंगापुर उसी का हिस्सा हैं। अगर हम पिछले 50 सालों को देखें तो आसियान देशों में अपनी स्थिति बेहद मजबूत बनाए रखने के लिए चीन और अमेरिका के बीच बड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है।
आसियान (दक्षिणपूर्व एशियाई देशों का संघ) के सदस्य देश 600 मिलियन से अधिक लोगों की आबादी और 4.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक के भूमि क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और सिंगापुर आसियान के संस्थापक देशों में से एक है। दोनों देशों की यात्राओं के दौरान, प्रधान मंत्री मोदी ने भारत की “एक्ट ईस्ट” नीति और ईंडो-पैसिफीक दृष्टिकोण को दोहराया।
देखा जाए तो चीन के संबंध सभी आसियान देशों के साथ सहज नहीं हैं लेकिन चीन ने इसे संतुलित करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाए हैं। सूत्रों के अनुसार, आसियान की अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसकी अर्थव्यवस्था 2030 तक दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए प्रति वर्ष 5% से अधिक बढ़ने का अनुमान है। लेकिन आर्थिक विकास ही एकमात्र कारण नहीं है चीन, अमेरिका और अब भारत जैसे देशों का ध्यान आकर्षित करने के लिए.
यहां यह बताना आवश्यक है कि आसियान देश वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस और ब्रुनेई पहले ही दक्षिण चीन सागर मे चीन के अवांछित दावे के खिलाफ अपना विरोध जता चुके हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ब्रुनेई, मलेशिया खुद को सहज मोड पर रख रहे हैं और ज्यादा तूल नही दे रहे है।
2024 में ही पांच बार फिलीपींस और चीन ने एक-दूसरे पर विवादित दक्षिण चीन सागर में तट रक्षक जहाजों को जानबूझकर टक्कर मारने का आरोप लगाया लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संबंध खतरे में हैं क्योंकि फिलीपींस चीन के साथ व्यापारिक संबंध मजबूत करना चाहता है।चीन फिलीपींस का शीर्ष व्यापारिक भागीदार है। अधिकतर समस्याएं तो हैं लेकिन आसियान देशों में अपने भारी निवेश के कारण चीन संबंधों को संतुलित करने में सक्षम है और उसी तरह अमेरिका आसियान के देशों के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ बनाने के लिए चीन के खिलाफ अपनी समानांतर रेखा खींच रहा है।
चीन की रणनीति आसियान के देशों में बड़े पैमाने पर निवेश की मदद से इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने की है, और दूसरी तरफ अमेरिका आसियान के देशों को अधिक महत्व देकर चीन की विस्तारवाद रणनीति को नियंत्रित करने के लिए बाध्य है। लेकिन भारत आसियान को बहुत अलग तरीके से देख रहा है, खासकर यूक्रेन बनाम रूस और इज़राइल बनाम फिलिस्तीन संघर्ष के मद्देनजर ।
स्पष्ट है, यह एक नया युग है, जिसमें एक देश को अपना रुख खुद रखना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी समूह या एसोसिएशन के कितने करीब हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है कि आपके एक-दूसरे के साथ करीबी रिश्ते हों। और भारतीय प्रधानमंत्री की ब्रुनेई और सिंगापुर की हालिया यात्रा से संकेत मिलता है कि प्रत्येक आसियान देश भारत के लिए मायने रखता है। अमेरिका के रिश्ते कितने भी मजबूत क्यों न हों, ये बात ज्यादा जरुरी है कि आसियान का हर देश भारत को कितनी अहमियत देता है।
दुनिया की मौजूदा स्थिति को देखते हुए आसियान के साथ कदम से कदम मिलाना भारत के लिए बेहद अहम हैं।
निस्संदेह, एक वह समय था जब भारत आसियान में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से असहज महसूस कर रहा था, लेकिन दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में बढ़ती चीनी आक्रामकता और दावेदारी चिंता का कारण है। इसने इस क्षेत्र में चीन का मुकाबला करने के लिए आसियान को भारत के साथ साझेदारी के लिए प्रेरित किया है। भारत और आसियान समुद्री सुरक्षा बनाए रखने में महत्वपूर्ण भागीदार हैं ,इसे और अधिक मजबूत करने तथा प्रत्येक आसियान देशों तक पहुंचने के लिए ब्रुनेई और सिंगापुर की हालिया यात्रा उसी दिशा मे उठाया गया कदम है।
ब्रुनेई, दक्षिण चीन सागर में एक छोटा लेकिन रणनीतिक रूप से जरूरी, भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पहली बार किसी भारतीय प्रधान मंत्री ने ब्रुनेई का दौरा किया, जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र के साथ भारत की गहरी भागीदारी का संकेत है। यह यात्रा दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की 40वीं वर्षगांठ के अवसर पर भी हुई। यह ऐतिहासिक यात्रा देश की एक्ट ईस्ट पॉलिसी और इसके इंडो-पैसिफिक विजन में भी एक महत्वपूर्ण कदम है।
वहीं, सिंगापुर ने हमेशा भारत के लिए एक पुल के रूप में काम किया है और इस बार, श्री मोदी ने सिंगापुर को भारत की दशक पुरानी एक्ट ईस्ट नीति के लिए एक “महत्वपूर्ण एंकर” के रूप में बताया। “सिंगापुर सिर्फ एक भागीदार देश नहीं है। यह हर विकासशील देश के लिए एक प्रेरणा के रूप में कार्य करता है। हमारा लक्ष्य भारत के भीतर कई सिंगापुर बनाना है”। भारत सिंगापुर के महत्व को समझता है, लेकिन चीन के साथ इसकी निकटता को लेकर थोड़ा चिंतित भी है। सिंगापुर के लिए, चीन कभी भी आसान नही रहा है।
यहां यह जोड़ना महत्वपूर्ण है कि सिंगापुर का अस्तित्व उसकी नौसेना की ताकत पर निर्भर करता है, और यह अब दक्षिण पूर्व एशिया की सबसे उन्नत नौसेनाओं में से एक का संचालन करता है। 2024 के दक्षिण पूर्व एशिया राज्य सर्वेक्षण से पता चला है कि लगभग 73 प्रतिशत सिंगापुरवासी चीन के बढ़ते प्रभाव और सैन्य मुखरता के बारे में आशंकित हैं। . इससे एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है: इन चिंताओं के बावजूद सिंगापुर चीन के साथ नौसैनिक अभ्यास में क्यों शामिल होना जारी रखता है?
सिंगापुर के लिए, इसकी भागीदारी चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता के बीच तटस्थ रहने की इच्छा का संकेत देती है। 1990 के दशक के दौरान, सिंगापुर ने बाहरी खतरों के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए दक्षिण पूर्व एशिया में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति का समर्थन किया।
भारत सभी बाधाओं को समझता है और तदनुसार, इस हालिया यात्रा का अपना रणनीतिक महत्व है।
आने वाले दिनों में भारत द्वारा आसियान देशों के और दौरे देखने को मिल सकते हैं, जिसमें आर्थिक सहयोग, डिजिटल सहयोग, स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा अनुसंधान, शिक्षा और कौशल विकास को बढ़ाना मुख्य उद्देश्य होगा लेकिन चीन के प्रभुत्व को कम करना पहली प्राथमिकता रहेगी।