गौतम बुद्ध की जीवन कथा : प्रकरण-1-4 तक,सूरज पाण्डेय /सिद्धार्थ पाण्डेय की कलम से
प्रकरण 5
आठ वर्ष की आयु के सिद्धार्थ के कुशाग्र बुद्धि एवं अपरिमेय ज्ञान से शिक्षा-दीक्षा देने वाले आचार्य चमत्कृत हो उठे थे
सिद्धार्थ आठ वर्ष का हो चुका था।राजा ने अपने मंत्रियों से उसकी शिक्षा-दीक्षा के विषय में परामर्श किया। वे उसे महान सम्राट तथा योग्य शासक के रूप में देखना चाहते थे। अतः राजोचित शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्हीं आठ ब्राह्मणों को बुलवाया गया ।जिन्होंने स्वप्न का रहस्य बताया था। वे ही आठ ब्राह्मण उसके प्रथम आचार्य हुए।
शीघ्र ही सिद्धार्थ ने उन ब्राह्मणों से वे सारी विद्याएँ सीख लीं जिन्हें वे जानते थे। तब शुद्धोधन ने उदिच्च देश के उच्चफुलोत्पन्न प्रथम कोटि के भाषा-विद् तथा वैयाकरण, वेद-वेदांग तथा उपनिषदों के पूरे जानकार सुब्बमित्त को बुलवाया उसके हाथ पर समर्पण का जल सिंचन कर शिक्षण के निमित्त सिद्धार्थ को सौंप दिया। वह उसका दूसरा आचार्य था।
सिद्धार्थ की कुशाग्र बुद्धि एवं अपरिमेय ज्ञान से सुब्बमित्त चमत्कृत हो उठे। उन्होंने भावविभोर होकर कहा- प्रिय सिद्धार्थ ! मैं तेरी वंदना करता हूँ। ग्रंथों का अवलोकन या अध्ययन किए बिना ही तू सब कुछ जानता है। तू सर्वज्ञ है, सर्व दृष्टा है। जिस पर भी गुरुजनों के प्रति तुझमें आदर और सम्मान की भावना वर्तमान है। यह तेरी महानता है।
सिद्धार्थ की वाणी विनम्र थी और वदनाकृति राजोचित होते हुए भी आचार-व्यवहार में वह अत्यंत शालीन एवं मृदुल था। क्रीड़ा के हेतु मित्रों के साथ वन-विहार करते हुए जब वह किसी मृग के पीछे अपना अश्व दौड़ाता तो प्रायः मृग को आहत किए बिना ही भाग जाने देता। अश्वारोहण-कला का प्रदर्शन करने के लिए जब मित्रों से होड़ लगती तो अपने श्र्रमित अश्वों को कृच्छोच्छवास लेते देख वह लगाम खींच लेता और अपनी सुनिश्चित विजय को पराजय में परिणत करने में तिल-मात्र भी संकोच न करता।
इसी प्रकार जब वह अपने प्रतिस्पर्धिओ में से किसी को अवश्यंभावी पराजय के विचार से हताश और ग्लान मुख देख लेता या अकस्मात् कोई दुःस्वप्न उनके विचारों को अक्रांत कर देता तो भी वह अपने अश्वों की गति अवरूद्ध करके विचारमग्न हो जाता ।विजय उसके किसी न किसी मित्र के ही हाथ रहती ।
प्रकरण-6
कारूणिक सिद्धार्थ,पहला ध्यान जामुन के वृक्ष के नीचे लगाया, सूर्य ढ़लने लगा किंतु उस वृक्ष की छाया ने अपना स्थान नहीं बदला।
सिद्धार्थ स्वभाव से कारूणिक था। उसे यह अच्छा नहीं लगता था कि आदमी-आदमी का शोषण करे। वह इसी का चिंतन करने लगता। एक दिन हुआ कुछ मित्रों के साथ पिताजी के साथ खेत पर गया। वहाँ मजदूर जी-तोड़ श्र्रम कर रहे थे। कोई हल चला रहा था, कोई गुड़ाई़ कर रहा था, कोई खुदाई तो कोई बांध-बांधने का काम। धूप बहुत तेज थी। सभी मजदूर मानो पसीने से नहा रहे हो । उनके तन पर पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। धूप से जलकर उनका शरीर काला पड़ चुका था। उन्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिलता था। उनके बच्चे धूप में ही नंग-धड़ंग निस्तेज आंखों से दया की याचना करते से प्रतीत होते थे।
यह सब देख कर उसे बड़ा दुख हुआ। उसने अपने एक मित्र से कहा- एक आदमी दूसरे का शोषण करे। क्या यह ठीक है? श्रम ये लोग करते हैं किंतु कुछ लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं मालिक, मित्र पर पुरानी विचार-परंपरा का प्रभाव था। उसने कहा कि मजदूरों का जन्म भी अपने मालिक की सेवा करने के लिए होता है। यही उनका धर्म है। शाक्य लोग वप्रमंगळ नाम का एक उत्सव मनाया करते थे। यह उत्सव धान बोने के प्रथम दिन मनाया जाता था। शाक्य-प्रथानुसार उस दिन हर शाक्य को अपने हाथ से हल जोतना पड़ता था। इस उत्सव का आनंद लेने के लिए सिद्धार्थ भी खेत पर पहुंचा।
प्रत्येक शाक्य सुसज्जित हल व बैलों को सजा-धजा कर नए वस्त्र धारण कर तैयार थे। सबसे आगे था शुद्धोधन का हल। सिद्धार्थ ने देखा कि खेतों में, हल में जोते हुए बैल हलों को घसीट रहे थे और हल चालक हल रेखा को गहरा करने के उद्देश्य से हल पर अपने पैर जमाए हुए थे। खेत कृषकों के हर्षपूर्ण स्वरों से गुंजरित हो रहे थे। अत्यंत मनोरम वातावरण था। पक्षियों की चहक, कोयल की कूक, मैना का कंठ स्वर,झरनो का निनाद, बैलों की गलघण्टियाँ,सब मिलाकर एक सम्मोहक वातावरण का निर्माण कर रहे थे।सिद्धार्थ पहले तो इस सुंदर वातावरण का आनंद लेता रहा किंतु कुछ ही देर पश्चात उसका ध्यान भ्रमशील बैलों तथा कृषकों पर गया। उसने इस कड़ी धूप में कृषकों द्वारा बैलों को पीटते हुए देखा। उसने देखा कि छिपकली कीटों को खा जाती है, सर्प छिपकली को खा जाता है, चील इन दोनों को ही अपना भक्ष्य बनाती है, बगुला मछली को, बाज बुल-बुल को खा जाता है, उसने देखा कि सर्वत्र प्राणी एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं। वे एक-दूसरे की हत्या करने की योजनाएं एवं कुचक्र रचने में क्रियाशील रहते हैं।
सिद्धार्थ यह सब देख कर अत्यन्त दुखी हुआ। उसके मन में असंख्य प्रश्न उठने लगे और वह एक जामुन के वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न हो बैठ गया। मध्याह्न हो चुका था। राजा के परिचर कुमार को ढूंढते हुए उस स्थल पर आये और उन्होंने देखा कि कुमार वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न बैठा है। सूर्य ढ़लने लगा किंतु उस वृक्ष की छाया ने अपना स्थान नहीं बदला। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। राजा यह देख कर बहुत चिंतित हुए।
प्रकरण-7
सिद्धार्थ ने हंस की सेवा-सुश्रुषा कर,पुनः हंसों के समूह में छोड़ दिया परिणाम स्वरुप देवदत्त, सिद्धार्थ का बद्ध-वैरी बन गया ।
वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ राजवंश के अन्य युवकों और मित्रों के साथ राजोद्यान में विहार कर रहा था। उसके मित्रों ने उसके सामने शिकार का प्रस्ताव रखा। किंतु उसने अस्वीकार कर दिया। उसके मित्र उसे डरपोक कहकर उसका उपहास उड़ाने लगे। जब वह नहीं माना तो उन्होंने कहा-चलो,तुम शिकार मत करना किंतु मित्रों का निशाना देखने के लिए ही आओ। सिद्धार्थ ने कहा-कि ‘मैं निर्दोष प्राणियों के वध का साक्षी नहीं होना चाहता’।
कुमार के माता-पिता भी उसके इस व्यवहार से चिंतित थे। उन्होंने भी उसे समझाने का प्रयास किया कि शिकार तो क्षत्रिय लोगों का धर्म है, वीरता की पहचान है किंतु कुमार के तर्क अकाट्य होते। हताश माता-पिता उसे उद्यान में छोड़कर लौट गए। मित्र भी शिकार के लिए निकल पड़े। सिद्धार्थ पुनः उस प्राकृतिक सुषमा में मग्न हो गया।
वह देख रहा था कि हिम-धवल, सुंदर हंसों का एक समूह उद्यान के ऊपर से हिमालय की ओर उड़ा जा रहा है। उनकी स्वच्छंदता पर वह मुग्ध हो उठा। तभी अग्रगामी हंस के विस्तृत पंख में एक तीक्ष्ण बाण जा लगा और वह छटपटाता, क्रंदन करता हुआ भूमि पर गिर पडा।घायल हंस उनके सामने आ गिरा जिससे उनका ध्यान भंग हो गया । जब उन्होंने अपनी आँखे खोली तो देखा कि सामने एक सफेद हंस तीर के वार से बुरी तरह घायल पड़ा तड़प रहा है। उसे देखते ही सिद्धार्थ का मन द्रवित हो उठा और उन्होंने उसे तुरंत उठा लिया ।
धीरे-धीरे वे हंस को सहलाने लगे और फिर पास के सरोवर में जाकर उसका घाव धोकर उसके शरीर से धीरे से तीर को निकाला।उसने पक्षी को अपने सुकोमल हाथों से उठाकर गोद में रख लिया। धीरे से बाण निकाल कर क्षत पंख पर शीतल जल डाला । तत्पश्चात् नव पल्लवों से उस पर मधु का आलेपन किया। तीर निकालते ही वह दर्द से तड़प उठा तब सिद्धार्थ उसे धीरे से सहलाते है और उसके घाव पर पट्टी बांध देते हैं । उसी समय एक ओर से कुछ शोर होता है और उधर से उनका चचेरा भाई देवदत्त आता हुआ दिखाई दे रहा था। सिद्धार्थ पक्षी को पाकर अत्यंत हर्षित हुआ। सच्चाई यह है कि सिद्धार्थ ने हंस की सेवा-सुश्रुषा की और स्वस्थ होने पर पुनः हंसों के समूह में छोड़ दिया ।
सिद्धार्थ ने जैसे ही पक्षी को गिरते देखा, वह दौड़कर उसके समीप जा पहुंचा। इससे पूर्व उसने कभी किसी का करुण क्रंदन नहीं सुना था। अतः उस सुंदर पक्षी की छटपटाहट को देखकर उसका हृदय करूणा से द्रवित हो उठा।
इसी समय वहां एक सेवक ने आकर कुमार से कहा-‘हमारे कुमार ने इस पक्षी का शिकार किया है। कृपा करके यह पक्षी हमें प्रदान कीजिए’। सिद्धार्थ ने उत्तर दिया-नहीं! यदि पक्षी मर गया होता तो वह मारने वाले को दिया भी जा सकता था, किंतु यह हंस अभी जीवित है। इसी बीच देवदत्त हंस को ढूंढता हुआ वहां आ पहुंचा। उसने सिद्धार्थ का कथन सुना और उससे कहा –यह वन्य पक्षी उसी का हो सकता है जिसने इसको आकाश से भूमि पर गिराया है, अतः अब यह मेरा है।
विवाद तर्क-वितर्क के साथ बढ़ता ही गया तथा अंत में इसे सुलझता न देख वे इसके निर्णयार्थ राजा के पास गए। सभा में विभिन्न मत व्यक्त किए गए। बात को गंभीर होता देख एक अज्ञात धर्माध्यक्ष ने कहा-‘‘ जो व्यक्ति जीवन की रक्षा करता है, रक्षित प्राणी उसी का हो सकता है, न कि उसका जिसने जीवन के नाश करने का प्रयास किया हो।’’ अतः पक्षी सिद्धार्थ को दे दिया जाए।
सभा के सभी सदस्यों को ध्वनिमत से उसे न्यायोचित ठहराया।। देवदत्त तब से ही सिद्धार्थ का बद्ध-वैरी बन गया।
प्रकरण-8
क्रीडा-क्षेत्र में विवाह के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकर्ता साबित हो ‘स्वयंवर’ में सिद्धार्थ ने यशोधरा रूपी रत्न को जीता
सिद्धार्थ अब अट्ठारह वर्ष का हो चुका था। समस्त सुख-सुविधाओं के होते हुए भी वह एकांत प्रिय था। उसे जब भी अवसर मिलता, ध्यानमग्न हो जाता। राजा उसकी गतिविधियों से आशंकित थे। अतः उन्होंने अपने मंत्रियों एवं वृद्धजनों से विचार-विमर्श किया। एक वृद्ध मंत्री ने सलाह दी कि प्रेम ही इन क्षीण व्याधियों का उपचार है।
कुमार के चिंताग्रस्त और अस्थिर हृदय को नारी के प्रेम-रज्जू से बांध दीजिए। जिस नारी सौंदर्य के प्रभाव से बड़े-बड़े ऋषि स्वर्ग के आनंद को भी भूल जाते हैं उस सौंदर्य से कुमार सर्वथा अनभिज्ञ है। प्रस्ताव सभी को उचित जान पड़ा। यशोधरा दण्डपानी नामक एक शाक्य की अनुपम सुंदर कन्या थी और सोलहवें वर्ष में पहुंच चुकी थी। दण्डपानी ने उसके विवाह हेतु ‘स्वयंवर’ में सम्मिलित होने का निमंत्रण पड़ोसी देशों के तरुणों को भेजा।
सिद्धार्थ गौतम के नाम भी एक निमंत्रण था। राजा चिंतित थे कि सिद्धार्थ तो अपनी वीरता का श्रेष्ठ प्रदर्शन कर नहीं पायेगा, वह तो हमेशा ध्यान-चिंतन की करता रहता है, फिर भी उन्होंने पुत्र से स्वयंवर में सम्मिलित होने को कहा। सिद्धार्थ पिता की आज्ञा पाकर स्वयंवर में पहुंचा। यशोधरा पहली दृष्टि में उस पर मुग्ध हो गई। उसने अपनी सदेच्छा माता से प्रकट की। यह सुनकर दण्डपाणि भी बहुत प्रसन्न नहीं थे। उपस्थित अन्य तरूणों ने आपत्ति व्यक्त की कि बिना किसी सामरिक कौशल-प्रदर्शन के यह स्वयंवर पूर्ण नहीं माना जा सकता । अतः दण्डपाणि ने घोषणा की कि अभ्यर्थियों को सामरिक कलाओं का प्रदर्शन करना होगा। सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकर्ता से ही यशोधरा का विवाह होगा। यशोधरा इस घोषणा से भयभीत हो उठी। दण्डपाणि ने कहा कि अभिलाषी युवक सातवें दिन क्रीडा-क्षेत्र में उपस्थित हो जाये।
निर्धारित तिथि पर क्रीड़ा-क्षेत्र में अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। अपने माता-पिता एवं अन्य संबंधियों के साथ यशोधरा भी वधू की वेश-भूषा में एक सुसज्जित पालकी में वहां आई। राज्य के युवकों में श्रेष्ठ देवदत्त, नंद एवं अर्दुनुन यशोधरा को पाने की लालसा लिए वहां उपस्थित थे, तभी अपने श्वेत अश्व कंटक पर आसीन राजकुमार सिद्धार्थ वहां आया। वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए प्रतिद्वंद्वियों को संबोधित करते हुए बोला-‘‘ मेरे प्रतिस्पर्धी यह प्रमाणित करने का प्रयत्न करें कि उसे यशोधरा को पाने की महत्वाकांक्षा मेरे लिए अनाधिकार चेष्टा है और मैं वस्तुतः इस रत्न को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं हूँ।’’
सर्वप्रथम नंद ने उसे धनुर्विद्या प्रदर्शन हेतु चुनौती दी। नंद, अर्दजुन, देवदत्त तथा सिद्धार्थ ने क्रमशः अपने लक्ष्य चार,छः, आठ, और दस कोस दूर रखवाए और उन्हें भेद दिया। सिद्धार्थ की करतल- ध्वनि से प्रशंसा की गई। अब देवदत्त ने कुमार को खड्ग-प्रयोग के लिए-चुनौती दी। देवदत्त, अर्दजुन, नंद, ने क्रमशः छः,सात, नौ अंगुल मोटे तनों को एक ही प्रहार से काट दिया।
सिद्धार्थ ने एक ही प्रहार में दो वृक्षों के तने काट दिए। अब अश्व-पालन प्रतियोगिता ही शेष थी। इसमें भी कंटक अश्व पर राजकुमार विजयी हुए। उन्हें दूसरा अश्व दिया गया। उस पर भी विजय सिद्धार्थ की ही हुई। उनके कौशल की सभी ने मुग्ध कंठ से प्रशंसा की। यशोधरा ने उनके गले में वरमाला डालकर चरण स्पर्श किए।
कोटि -कोटि नमन आपको
आपने महात्मा बुद्ध की जीवनी जो संसार के लिए प्रेरणास्रोत हैं ,उनपर शानदार, कमाल और चमत्कारिक प्रकाश डाला है ।
आपकी कलम की ताकत ऐसे ही लगातार, निरंतर और निर्भीक रुप से समाज के लिए हमेशा वरदान एवं समय-समय पर क्रांति लाए ।
धन्यवाद ………