गौतम बुद्ध की जीवन कथा : प्रकरण 9-12 तक,सूरज पाण्डेय /सिद्धार्थ पाण्डेय की कलम से

गौतम बुद्ध की जीवन कथा : प्रकरण 9-12 तक,सूरज पाण्डेय /सिद्धार्थ पाण्डेय की कलम से

प्रकरण-9

सिद्धार्थ और यशोधरा के परिणय-सूत्र में बंधे, सुविधाओं एवं आमोद-प्रमोद के साधनों से परिपूर्ण अन्तःपुर’ की व्यवस्था,एक से बढ़कर एक सुन्दरियों को मन जीतने का संकेत दिया,किसी भी अप्रिय व्यक्ति अथवा वस्तु को कुमार के समक्ष नहीं आने दिया जाता

इस प्रकार सुंदरियों से भरे उस महल को देखकर, अप्सराओं से भरे देव लोग का भ्रम होता था। सुंदरियों द्वारा इतने आक्रमण किए जाने पर भी वह संयतेन्द्रिय राजकुमार न प्रसन्न हुआ न मुस्कुराया ।

उनकी वास्तविक अवस्था से परिचय प्राप्त होने के कारण राजकुमार स्थिर एकाग्रचित से विचार करता रहा। वह सोचता कि इन स्त्रियों में क्या ? इतना भी समझने की क्षमता नहीं है कि यौवन चंचल है, वार्धक्य समस्त सौंदर्य का नाश कर देगा।

इस प्रकार यह बे-मेल मेल महीनों-वर्षों चलता रहा किंतु उसका कुछ फल ना हुआ। शुद्धोधन किसी भी अप्रिय व्यक्ति अथवा वस्तु को कुमार के समक्ष नहीं आने देता था। एक केश भी श्वेत होने पर सुंदरी को हटा दिया जाता।

सुरक्षा के इन आयोजनों से सिद्धार्थ बाह्य जगत की पीड़ा, दःख, निर्धनता एवं अभावों से प्रायः अनभिज्ञ था। किंतु स्वप्नों में ही वह यदा-कदा चित्त को शोकाकुल और उद्विग्न करनेवाली इन अवस्थाओं का अनुभव करता और तब वह घबड़ाकर जाग जाता।

प्रकरण-10

राज्य भ्रमण करते हुए मार्ग में जरा, पीड़ित रोगी एवं मृत व्यक्तिको देख सिद्धार्थ अत्यंत दुखी हुए,मन भोग-विलास से उचट गया, सिद्धार्थ को शाक्य संघ में दीक्षा लेने के लिए प्रेरित किया गया

सिद्धार्थ का मन भोग-विलास से उचट चुका था। उसे रात-रात भर नींद नहीं आती थी। उसे लगने लगा था कि वह इस भोग-विलास के कारागार में एक बंदी की तरह है। कुमार का मन मुक्त पंछी की तरह उड़ने के लिए छटपटाने लगा। वह महल से बाहर की दुनिया देखना चाहता था।

जब परिचरों ने कुमार का संदेश राजा शुद्धोधन को दिया तो वे और भी चिंतित हुए। उन्होंने पटह-ताड़कों को नगर सुसज्जित कराने एवं समस्त दुःखद वस्तुओं एवं प्राणियों को मार्ग से अलग हटाने के आदेश दिए। राजाज्ञा का अक्षरशः पालन किया गया।

यथा समय कुमार अपने सारथी चन्न (छन्दक) के साथ रथारूढ़ होकर राजपथ पर निकले। जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। राजकुमार प्रमुदित मन आगे बढ़ते चले गए। अकस्मात मार्ग में एक जीर्ण-शीर्ण जरा पीड़ित व्यक्ति उन्हें दिखाई दिया। चन्न से पूछे जाने पर पता चला कि कुमार भी इस अवस्था को पहुंच सकते हैं। वह अत्यंत दुखी हुआ।

भ्रमण करते हुए कुमार ने रोगी एवं मृत व्यक्तियों को देखा। वह संसार की असारता से और भी दुखी हुआ। तब प्रधानमंत्री उधायी ने कुमार को हर प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया किंतु सब व्यर्थ ही गया। उदायी जितना ही उसे सौंदर्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करता कुमार उतना ही उनसे दूर होता जाता।

जब सारे प्रयत्न विफल हो गए तो राजा ने मंत्रियों से मंत्रणाकर कुमार को शाक्य संघ में दीक्षा लेने के लिए प्रेरित किया। उनका मत था कि वह संघ के कार्यों में उलझा रहेगा तो गृह-त्याग का विचार उसके मन में नहीं आएगा।

शाक्यों का अपना एक संघ-भवन था ‘जिसे संथागार’ कहा जाता था। सभा के पुरोहित तथा सेनापति के प्रस्तावानुसार कुमार शाक्य-संघ का सदस्य नियुक्त किया गया। तब पुरोहित ने उसे संघ के नियमों से अवगत कराया। नियम थे-

1) तन, मन, धन से शाक्यों के स्वार्थ की रक्षा करना,

2) संघ की सभाओं में उपस्थित रहना।

3) किसी भी शाक्य का दोष पक्षपात रहित होकर खुलकर कहना।

4) स्वयं पर दोषारोपण किया जाए तो क्रोधित न होकर दोष स्वीकार करना।

व्यभिचार, हत्या, चोरी तथा झूठी साक्षी देने पर किसी भी सदस्य को संघ से निष्कासित एवं दंडित किया जाएगा। कुमार ने उक्त नियमों के पालन का आश्वासन दिया।

प्रकरण–11

सिद्धार्थ ने शाक्य संघ एवं कोलियों के विरूद्ध युद्ध को एक घृणित कृत्य बता,विवाद को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने की मन्त्रणा दी

सिद्धार्थ को शाक्य-संघ का सदस्य बने काफी समय हो चुका था। वह संघ का बड़ा ही ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ सदस्य था। संघ के सभी सदस्य उसे बहुत चाहते थे। उसी समय एक घटना घटी, शाक्यों तथा कोलियों के नौकरों में रोहिणी के जल को लेकर मार-पीट हो गई। जब शाक्यों और कोलियों इसका पता चला तो वे क्रुद्ध हो उठे।

शाक्य सेनापति ने कोलियों के विरूद्ध युद्ध छेड़ देने की बात पर विचार करने के लिए शाक्य-संघ का एक अधिवेशन बुलाया तथा युद्ध का प्रस्ताव रखा। सिद्धार्थ ने युद्ध को एक घृणित कृत्य बताते हुए इस प्रस्ताव का विरोध किया। उसने इस विवाद को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने की मन्त्रणा दी। इस प्रकार संघ में दो दल हो गए। अतः निर्णय पर पहुँचने के लिए मत लेना आवश्यक था। संघ के सदस्यों के मत लिए गए तो पाया कि सेनापति के पक्षधर अधिक थे। सिद्धार्थ फिर भी सेना में अनिवार्य भर्ती एवं युद्ध का विरोध करता रहा।

सेनापति व सिद्धार्थ में संघ के नियमों को लेकर बहुत तर्क-वितर्क हुए। संघ की कार्यवाही दूसरे दिन भी चलती रही। दूसरे दिन सेनापति ने घोषणा की, कि बीस से पचास वर्ष की आयु वाले सभी शाक्यों को कोलियों के विरूद्ध युद्ध के निमित्त सेना में भर्ती होना अनिवार्य है। सिद्धार्थ ने पुनः उसकी घोषणा का विरोध किया। सेनापति क्रुद्ध हो उठा और सिद्धार्थ को संघ के नियमों की अवहेलना करने पर दण्डित करने की चेतावनी दी।

कपिलवस्तु वस्तुतः कोशल नरेश के अधीन गणराज्य था। अतः सेनापति ने कहा कि कुछ दण्ड ऐसे भी है जिन्हें संघ स्वयं दे सकता हैै। इसके लिए कोशल नरेश की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक नहीं है। उसने सिद्धार्थ को संबोधित करते हुए कहा- आपके सामने तीन विकल्प है

1)आप सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें या

2)आपको फाँसी अथवा देश निकाल दिया जाय

या 3)आपके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर उनके खेतों को जब्त कर लिया जाय।

प्रकरण-12

यशोधरा ने कुमार (राहुल) को जन्म दी ।लेकिन सिद्धार्थ ने कहा — यह दुनिया दुःखों से भरी है। मुझे इन दुःखों के निवारण का उपाय ढूँढ़ना ही होगा।

शाक्य-संघ से लौटने पर सिद्धार्थ अत्यन्त चिन्तित रहने लगा। उसके कानों में सेनापति के शब्द गूंजते रहते। कभी वह जर्जर व्यक्ति उसकी आँखों के सामने दिखाई देता तो कभी रोगी या मृत। वह कभी शाक्यों और कोलियों का कलह देखता तो कभी शोषित कृषक ।

शुद्धोदन उसके चिन्तामग्न मुख को देखकर तड़प उठता। उसने कुमार के आमोद-प्रमोद की और अच्छी व्यवस्था करवाई। सौन्दर्य की साक्षात अवतार जैसी रमणियाँ उसे घेरे रहती, किन्तु कुमार का मन उनमें रंचमात्र भी न रमता था।

यशोधरा माँ बननेवाली थी। यथा समय उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। शुद्धोदन तथा राज्य के सब लोग अत्यन्त हर्षित हुए। जन्मोत्सव बड़ी ही धूम-धाम से मनाया गया। किन्तु सिद्धार्थ को पुत्र प्राप्ति की कोई खुशी नहीं थी। उसने पुत्र प्राप्ति को अपने मार्ग की बाधा ही समझा।

शुद्धोदन ने आसंकित होकर सभी पहरेदारों एवं अन्य कर्मचारियों को सचेत रहने के निर्देश दिए। सभी निर्गम मार्गो पर पहरा कड़ा कर दिया गया।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा की रात्रि थी। सभी रमणियाँ कुमार को रिझाते-रिझाते थक कर अस्त-व्यस्त सी कक्ष में सो रही थी। उनके मुख विकृत से दिखाई दे रहे थे। किसी की मुख से लार बह रही तो कोई अनावृत शरीर पड़ी थी। कुमार के मन में नश्वरता, व्याधि, जरा, मरण, आपसी संघर्ष के दृष्य और भी तेजी के साथ घूमने लगे। वह उद्विग्न हो उठा।

यशोधरा का कक्ष पास ही था। सिद्धार्थ ने वहाँ पहुँच कर देखा कि यशोधरा फूलों से सुसज्जित शैया पर कुमार (राहुल) के साथ निद्रा-लीन है। वह धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा। उसे लगा कि यह सौन्दर्य की मूर्ति यशोधरा उसका पुत्र राहुल सब एक दिन वृद्ध होंगे, कालकवलित होंगे। यह दुनिया दुःखों से भरी है। मुझे इन दुःखों के निवारण का उपाय ढूँढ़ना ही होगा। एक बार फिर अनेक दुःखद दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए।

कुमार दबे पाँव यशोधरा के कक्ष से बाहर आया तथा चन्न (छन्दक) के शयनागार की ओर बढ़ा। चन्न को जगाकर उसे कंटक (घोड़ा) लाने का आदेश दिया। चन्न ने उसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु कोई लाभ न हुआ। चन्न को निराश हो घोड़ा लाना ही पड़ा और रात ही रात में सिद्धार्थ कंटक पर सवार हो चन्न के साथ बहुत दूर निकल गया।

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