मोदी की “अबकी बार 400 पार” में क्या दक्षिण भारत सबसे बड़ी बाधा ?

@ नई दिल्ली

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी को पूरी दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता बता रही भाजपा को इस बात का दर्द है कि दक्षिण के राज्य नरेंद्र मोदी की महत्ता स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। जबकि भाजपा निरन्तर मोदी के दम पर दक्षिण में दाखिल होने की कोशिश कर रही है।

आश्चर्य यह है कि दक्षिण के लोग धर्मपरायण होते हुए भी धर्म को राजनीति से ज्यादातर अलग ही रखते आए हैं। अनेक सर्वे में यह बात भी उभर कर सामने आई है कि दक्षिणी राज्यों के लोगों को मोदी पसंद हैं क्योंकि उन्होंने राम मंदिर बनवाया है लेकिन साथ ही वे वे मोदी की हिन्दू -मुस्लिम वाली राजनीति के कायल नहीं हैं।

दक्षिण के सियासी परिदृश्य को बदलने की भाजपा की इच्छा विचारधारा और रणक्षेत्र की जरूरतों से प्रेरित है। एक दशक से भारत में शासन कर रही राष्ट्रीय पार्टी के लिए दक्षिण में मौजूद न होना बैचेनी पैदा करने वाली बात है भी, इस बार भाजपा इसी बेचैनी को मिटाना चाहती है। प्रधानमंत्री मोदी ने जब 17वीं लोकसभा में अपने अंतिम संबोधन में भाजपा के लिए 370 सीटें और एनडीए के लिए चार सौ सीटों का जिक्र किया तो प्रधानमंत्री को इस बात का एहसास था कि उनके लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए वह तीन सौ सत्तर सीटों का जो टारगेट सेट कर रहे है, वह दक्षिण के राज्यों के समर्थन के बिना संभव नहीं है।

दक्षिण से आने वाले राज्यो में शामिल कर्नाटक से 28, आंध्र पदेश से 25, तेलंगाना से 17,  तमिलनाडु से 39, केरल से 20 और एक सीट वाले पुडुचेरी मेें कुल मिलाकर लोकसभा की 130 सीटें आती हैं। 2019 में भारतीय जनता पार्टी इन 130 सीटों में से 29 सीटें ही जीत पाई थी। उसमें भी 25 सीटें अकेले कर्नाटक और चार सीटें तेलंगाना से मिली थी। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पुडुच्चेरी मिलाकर 85 लोकसभा सीटों में से पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी।

भाजपा उत्तर भारत में अपने प्रदर्शन के शीर्ष पर है और अपने आंकड़ों को बढ़ाने के लिए इस बार भाजपा दक्षिण में अपने प्रदर्शन पर निर्भर है। इसलिए भाजपा ने दक्षिण की 130 सीटों में से 50 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भाजपा की रणनीति लंबे समय से दक्षिण को फतह करने की रही है, परंतु दक्षिण की हिन्दुत्व विरोधी राजनीतिक संस्कृति में पले बढ़े मतदाताओं के बीच उसकी यह इच्छा मोटे तौर पर अधूरी ही रहती आई है।

भाजपा को उम्मीद है कि मोदी की लोकप्रियता, भाजपा संगठन और संघ के लगातार जमीनी स्तर पर काम के दम पर दक्षिण में भाजपा के लिए वोटों की फसल लहलहा सकती है। इसकी वजह 2019 के चुनाव में वोटों की हिस्सेदारी के ब्यौरे में है। भाजपा को कर्नाटक में 51.38, तेलंगाना में 19.45, केरल 12.93,तमिलनाडु 3.66, आंध्र प्रदेश में 0.96 प्रतिशत वोट मिले थे। इसलिए पार्टी ने अभी की योजना में ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों और उन दलों की पहचान की है, जिनके सहारे इस बार जीता जा सके।

इसीलिए आंध्र में तेलुगु देशम पार्टी और कर्नाटक में जेडीएस के साथ तमिलनाडु के कुछ छोटे दलों को साथ लिया गया। परन्तु 19 और 26 अप्रैल को हुए पहले और दूसरे दौर के मतदान के बाद मतदाताओं के रुख से भाजपा की दक्षिण की उम्मीदों को झटका लगा है। दक्षिण से अपेक्षित सफलता की उम्मीदें परवान न चढ़ते देख भाजपा और मोदी को अपने पुराने हिन्दू -मुस्लिम कार्ड की ओर लौटना पड़ा है, ताकि उत्तर भारत को तो कम से कम मजबूत रखा जा सके। दक्षिण विजित करने की मोदी और भाजपा की उम्मीदों का आसमान तो अब 4 जून को मतगणना के बाद ही साफ़ होगा।

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